"भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 105" के अवतरणों में अंतर

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पितामह [[भीष्म]] शरशय्या पर पड़े हुए हैं चारों ओर ऋषिमण्डली बैठी हुई है। धर्मराज युधिष्ठिर धर्म का तत्व पूछ रहे हैं और पितामह उन्हें बतला रहे हैं। बहुत-सी बातें जान लेने के बाद युधिष्ठिर ने कहा कि 'हे पितामह! पाप कहाँ रहता है और उसकी उत्पत्ति किससे होती है? कृपापूर्वक इसका रहस्य मुझे बतलाइये।' पितामह बोले-
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पितामह [[भीष्म]] शरशय्या पर पड़े हुए हैं चारों ओर ऋषिमण्डली बैठी हुई है। धर्मराज युधिष्ठिर धर्म का तत्व पूछ रहे हैं और पितामह उन्हें बतला रहे हैं। बहुत-सी बातें जान लेने के बाद [[युधिष्ठिर]] ने कहा कि 'हे पितामह! पाप कहाँ रहता है और उसकी उत्पत्ति किससे होती है? कृपापूर्वक इसका रहस्य मुझे बतलाइये।' पितामह बोले-
  
'हे धर्मराज! मैं तुझे पाप के रहने का स्थान बतलाता हूँ तू मन लगाकर सुन! लोभ एक बड़ा भारी ग्राह है, इसी से पाप की उत्पत्ति होती है। पाप, अधर्म, सबसे बड़े दु:ख और कपट की जड़ लोभ ही है। लोभ से ही मनुष्य पाप करते हैं। काम, क्रोध, मोह, माया, मान, पराधीनता, क्षमाहीनता, निर्लज्जता, दरिद्रता, चिंता और अपयश आदि लोभ से ही उत्पन्न होते हैं। भोगों में आसक्ति, अतितृष्णा, बुरे कर्म करने की इच्छा, कुल-विद्या-रुप-धन का मद, समस्त प्राणियों से बैर, सबका तिरस्कार, सबका अविश्वास, सबके साथ टेढ़ापन, परधन-हरण, परस्त्री-गमन, वाणी से चाहे से बक उठना, मन में चाहे सो सोचना, किसी की भी निन्दा करने लगना, काम के वश में हो जाना, पेट-परायण होना, बिना मौत मरना, ईर्ष्या (डाह) करना, झूठ बोलने को मजबूर होना, जीभ के स्वाद के वश में होना, बुरी बातें सुनने की इच्छा करना, परनिन्दा करना, अपनी बड़ाई मारना, मत्सरता, द्रोह, कुकार्य, सब तरह के साहस और न करने योग्य काम भी कर बैठना आदि अनेक दुर्गुणों की लोभ से ही उत्पत्ति होती है। जन्म से लेकर बुढ़ापे तक किसी भी अवस्था में लोभ का त्याग करना कठिन है। मनुष्य बूढ़ा हो जाता है, परन्तु यह लोभ बूढ़ा नहीं होता। गहरे जल से भ्ररी हुई नदियों का जल समुद्र में मिल जाता है, परन्तु जैसे उस जल से समुद्र तृप्त नहीं होता, इसी प्रकार चाहे जितना धन प्राप्त हो जाने पर भी लोभी तृप्त नहीं हो सकता। लोभी मनुष्य की कामना कभी पूरी होती ही नहीं। लोभ के स्वरुप को देव-दानव, मनुष्य और कोर्इ् भी प्राणी ठीक-ठीक नहीं जानते। मनस्वी पुरुष को उचित है कि वह ऐसे लोभ को पूर्णरुप से जीत लें। मन को वश में न रखने वाले लोभी मनुष्यों में द्रोह, निन्दा, हठीलापन और मत्सरता आदि दुर्गुण अधिकता से देखने में आते हैं।
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'हे धर्मराज! मैं तुझे पाप के रहने का स्थान बतलाता हूँ तू मन लगाकर सुन! लोभ एक बड़ा भारी ग्राह है, इसी से पाप की उत्पत्ति होती है। पाप, अधर्म, सबसे बड़े दु:ख और कपट की जड़ लोभ ही है। लोभ से ही मनुष्य पाप करते हैं। काम, क्रोध, मोह, माया, मान, पराधीनता, क्षमाहीनता, निर्लज्जता, दरिद्रता, चिंता और अपयश आदि लोभ से ही उत्पन्न होते हैं। भोगों में आसक्ति, अतितृष्णा, बुरे कर्म करने की इच्छा, कुल-विद्या-रुप-धन का मद, समस्त प्राणियों से बैर, सबका तिरस्कार, सबका अविश्वास, सबके साथ टेढ़ापन, परधन-हरण, परस्त्री-गमन, वाणी से चाहे से बक उठना, मन में चाहे सो सोचना, किसी की भी निन्दा करने लगना, काम के वश में हो जाना, पेट-परायण होना, बिना मौत मरना, ईर्ष्या (डाह) करना, झूठ बोलने को मजबूर होना, जीभ के स्वाद के वश में होना, बुरी बातें सुनने की इच्छा करना, परनिन्दा करना, अपनी बड़ाई मारना, मत्सरता, द्रोह, कुकार्य, सब तरह के साहस और न करने योग्य काम भी कर बैठना आदि अनेक दुर्गुणों की लोभ से ही उत्पत्ति होती है। जन्म से लेकर बुढ़ापे तक किसी भी अवस्था में लोभ का त्याग करना कठिन है। मनुष्य बूढ़ा हो जाता है, परन्तु यह लोभ बूढ़ा नहीं होता। गहरे [[जल]] से भरी हुई नदियों का जल समुद्र में मिल जाता है, परन्तु जैसे उस जल से समुद्र तृप्त नहीं होता, इसी प्रकार चाहे जितना धन प्राप्त हो जाने पर भी लोभी तृप्त नहीं हो सकता। लोभी मनुष्य की कामना कभी पूरी होती ही नहीं। लोभ के स्वरुप को देव-दानव, मनुष्य और कोर्इ् भी प्राणी ठीक-ठीक नहीं जानते। मनस्वी पुरुष को उचित है कि वह ऐसे लोभ को पूर्णरुप से जीत लें। मन को वश में न रखने वाले लोभी मनुष्यों में द्रोह, निन्दा, हठीलापन और मत्सरता आदि दुर्गुण अधिकता से देखने में आते हैं।
  
 
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17:21, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण

श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

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महाभारत का दिव्य उपदेश

लोभ में ही पाप रहता है, लोभी का संग त्यागकर
सत्पुरुषों की सेवा करनी चाहिये।


पितामह भीष्म शरशय्या पर पड़े हुए हैं चारों ओर ऋषिमण्डली बैठी हुई है। धर्मराज युधिष्ठिर धर्म का तत्व पूछ रहे हैं और पितामह उन्हें बतला रहे हैं। बहुत-सी बातें जान लेने के बाद युधिष्ठिर ने कहा कि 'हे पितामह! पाप कहाँ रहता है और उसकी उत्पत्ति किससे होती है? कृपापूर्वक इसका रहस्य मुझे बतलाइये।' पितामह बोले-

'हे धर्मराज! मैं तुझे पाप के रहने का स्थान बतलाता हूँ तू मन लगाकर सुन! लोभ एक बड़ा भारी ग्राह है, इसी से पाप की उत्पत्ति होती है। पाप, अधर्म, सबसे बड़े दु:ख और कपट की जड़ लोभ ही है। लोभ से ही मनुष्य पाप करते हैं। काम, क्रोध, मोह, माया, मान, पराधीनता, क्षमाहीनता, निर्लज्जता, दरिद्रता, चिंता और अपयश आदि लोभ से ही उत्पन्न होते हैं। भोगों में आसक्ति, अतितृष्णा, बुरे कर्म करने की इच्छा, कुल-विद्या-रुप-धन का मद, समस्त प्राणियों से बैर, सबका तिरस्कार, सबका अविश्वास, सबके साथ टेढ़ापन, परधन-हरण, परस्त्री-गमन, वाणी से चाहे से बक उठना, मन में चाहे सो सोचना, किसी की भी निन्दा करने लगना, काम के वश में हो जाना, पेट-परायण होना, बिना मौत मरना, ईर्ष्या (डाह) करना, झूठ बोलने को मजबूर होना, जीभ के स्वाद के वश में होना, बुरी बातें सुनने की इच्छा करना, परनिन्दा करना, अपनी बड़ाई मारना, मत्सरता, द्रोह, कुकार्य, सब तरह के साहस और न करने योग्य काम भी कर बैठना आदि अनेक दुर्गुणों की लोभ से ही उत्पत्ति होती है। जन्म से लेकर बुढ़ापे तक किसी भी अवस्था में लोभ का त्याग करना कठिन है। मनुष्य बूढ़ा हो जाता है, परन्तु यह लोभ बूढ़ा नहीं होता। गहरे जल से भरी हुई नदियों का जल समुद्र में मिल जाता है, परन्तु जैसे उस जल से समुद्र तृप्त नहीं होता, इसी प्रकार चाहे जितना धन प्राप्त हो जाने पर भी लोभी तृप्त नहीं हो सकता। लोभी मनुष्य की कामना कभी पूरी होती ही नहीं। लोभ के स्वरुप को देव-दानव, मनुष्य और कोर्इ् भी प्राणी ठीक-ठीक नहीं जानते। मनस्वी पुरुष को उचित है कि वह ऐसे लोभ को पूर्णरुप से जीत लें। मन को वश में न रखने वाले लोभी मनुष्यों में द्रोह, निन्दा, हठीलापन और मत्सरता आदि दुर्गुण अधिकता से देखने में आते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. वंश परिचय और जन्म 1
2. पिता के लिये महान् त्याग 6
3. चित्रांगद और विचित्रवीर्य का जन्म, राज्य भोग, मृत्यु और सत्यवती का शोक 13
4. कौरव-पाण्डवों का जन्म तथा विद्याध्यन 24
5. पाण्डवों के उत्कर्ष से दुर्योधन को जलन, पाण्डवों के साथ दुर्व्यवहार और भीष्म का उपदेश 30
6. युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ, श्रीकृष्ण की अग्रपूजा, भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण के स्वरुप तथा महत्तव का वर्णन, शिशुपाल-वध 34
7. विराट नगर में कौरवों की हार, भीष्म का उपदेश, श्रीकृष्ण का दूत बनकर जाना, फिर भीष्म का उपदेश, युद्ध की तैयारी 42
8. महाभारत-युद्ध के नियम, भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी 51
9. भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण का माहात्म्य कथन, भीष्म की प्रतिज्ञा-रक्षा के लिये पुन: भगवान् का प्रतिज्ञा भंग, भीष्म का रण में पतन 63
10. श्रीकृष्ण के द्वारा भीष्म का ध्यान,भीष्म पितामह से उपदेश के लिये अनुरोध 81
11. पितामह का उपदेश 87
12. भीष्म के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की अन्तिम स्तुति और देह-त्याग 100
13. महाभारत का दिव्य उपदेश 105
अंतिम पृष्ठ 108

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