श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 626

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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अष्टादश अध्याय

यया धर्ममधर्म च कार्यं चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी ॥31॥

यया धर् शास्त्रचोदितम् अधर्म च तत्प्रतिषिद्धं कार्यं च अकार्यम् एव च पूर्वोक्ते एव कार्याकार्ये अयथावद् न यथावत् सर्वतो निर्णयेन न प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।31।।

हे पार्थ! जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य शास्त्रविहित धर्म को शास्त्र प्रतिषिद्ध अधर्म को, एवं पूर्वोक्त कर्तव्य और अकर्तव्य को, यथार्थ रूप से- सर्वतोभाव से निर्णयपूर्वक नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है।।31।।

अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी ॥32॥

अधर्म प्रतिषिद्धं धर् विहितम् इति या मन्यते जानाति तमसा आवृता सती सर्वार्थान् सर्वान् एव ज्ञेयपदार्थान् विपरीतान् च विपरीतान् एव विजानाति बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।32।।

हे पार्थ! जो तमोगुण से आवृत हुई बुद्धि अधर्म को- निषिद्ध कार्य को धर्म मान लेती है, यानी शास्त्रविहित मान लेती है, तथा जानने योग्य अन्यान्य समस्त पदार्थों को भी, जो विपरीत ही समझती है, वह तामसी है।।32।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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