श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
अष्टादश अध्याययया धर्ममधर्म च कार्यं चाकार्यमेव च । यया धर् शास्त्रचोदितम् अधर्म च तत्प्रतिषिद्धं कार्यं च अकार्यम् एव च पूर्वोक्ते एव कार्याकार्ये अयथावद् न यथावत् सर्वतो निर्णयेन न प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।31।। हे पार्थ! जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य शास्त्रविहित धर्म को शास्त्र प्रतिषिद्ध अधर्म को, एवं पूर्वोक्त कर्तव्य और अकर्तव्य को, यथार्थ रूप से- सर्वतोभाव से निर्णयपूर्वक नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है।।31।। अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता । अधर्म प्रतिषिद्धं धर् विहितम् इति या मन्यते जानाति तमसा आवृता सती सर्वार्थान् सर्वान् एव ज्ञेयपदार्थान् विपरीतान् च विपरीतान् एव विजानाति बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।32।। हे पार्थ! जो तमोगुण से आवृत हुई बुद्धि अधर्म को- निषिद्ध कार्य को धर्म मान लेती है, यानी शास्त्रविहित मान लेती है, तथा जानने योग्य अन्यान्य समस्त पदार्थों को भी, जो विपरीत ही समझती है, वह तामसी है।।32।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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