श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
षष्ठम अध्यायअब योगी के आहार आदि के नियम कहे जाते हैं– नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत: । न अत्यश्नत आत्मसम्मितम् अन्नपरिमाणम् अतीत्य अशन्तः अत्यश्नतो न योगः अस्ति, न च एकान्तम् अनश्नतो योगः अस्ति ‘यदु ह वा आत्मसम्मितसंपन्न तदवति तन्न हिनस्ति’ ‘यद्भूयो हिनस्ति तद्यत्कनीयो न तदवति’ (शतपथ) इति श्रुतेः। तस्माद् योगी न आत्मसम्मिताद् अन्नाद् अधिकं न्यूनं वा अश्नीयात्। अथ वा योगिनो योगशास्त्रे परिपठिताद् अन्नपरिमाणाद् अतिमात्रम् अश्नतो योगो न अस्ति। अधिक खाने वाले का अर्थात् अपनी शक्ति का उल्लंघन करके शक्ति से अधिक भोजन करने वाले का योग सिद्ध नहीं होता और बिलकुल न खाने वाले का भी योग सिद्ध नहीं होता; क्योंकि यह श्रुति है कि ‘जो अपने शरीर की शक्ति के अनुसार अन्न खाया जाता है वह रक्षा करता है, वह कष्ट नहीं देता (बिगाड़ नहीं करता): जो उससे अधिक होता है वह कष्ट देता है और जो प्रमाण से कम होता है वह रक्षा नहीं करता। इसलिए योगी को चाहिए कि अपने लिए जितना उपयुक्त हो उससे कम या ज्यादा अन्न न खाय। अथवा यह अर्थ समझो कि योगी के लिए योगशास्त्र में बतलाया हुआ जो अन्न का परिमाण है उससे अधिक खाने वाले का योग सिद्ध नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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