श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
षष्ठम अध्यायएव तावत् प्रथमम् उच्यते- आसन ही वर्णन करते हैं- शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन: । शुचौ शुद्धे विविक्ते स्वभावतः संस्कारतो वा देशे स्थाने, प्रतिष्ठाप्य स्थिरम् अचलम् आत्मन आसनं न अत्युच्छ्रितं न अतीव इच्छ्रिंत न अपि अतिनीचं तत् च चैलाजिनकुशोत्तरम्, चैलम् अजिनं चैलाजिनकुशोत्तरं पाठ्क्रमाद् विपरीतः अत्र क्रमः चैलादीनाम्।।11।। शुद्ध स्थान में अर्थात् जो स्वभाव से अथवा झाड़ने बुहारने दि संस्कारों से साफ किया हुआ पवित्र और एकान्त स्थान हो, उसमें अपने आसन को जो न अति ऊँचा हो और न अति नीचा हो और जिस पर क्रम से वस्त्र, मृगचर्म और कुशा, उस पर मृगचर्म और फिर वस्त्र बिछावे।।11।। प्रतिष्ठाप्य किम्- (आसन को) स्थिर स्थापन करके क्या करे (सो कहते हैं)- तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय: । तत्र तस्मिन् आसने उपविश्य योगं युञ्ज्यात्। कथम्, सर्वविषयेभ्य उपसंहृत्य एकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः चित्तं च इन्द्रियाणि च चितेन्द्रियाणि तेषां क्रियाः संयता तस्य स यतचित्तेन्द्रियक्रियः। स किमर्थं योगं युञ्ज्याद् इति आह- आत्मविशुद्ध्ये अंतःकरणस्य विशुद्ध्यर्थम् इति एतत्।।12।। उस आसन पर बैठकर योग का साधन करे। कैसे करे? मन को सब विषयों से हटाकर एकाग्र करके तथा यतचित्तेन्द्रियक्रिय यानी चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को जीतने वाला होकर योग का साधन करे। जिसने मन और इन्द्रियों की क्रियाओं का संयम कर लिया हो उसको यतचित्तेन्द्रियक्रिय कहते हैं। वह किसलिए योग का साधन करे? सो कहते हैं- आत्मशुद्धि के लिए अर्थात् अंतःकरण की शुद्धि के लिए करे।।12।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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