श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 260

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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षष्ठम अध्याय

यः कश्चिद् ईदृशः क्रमी स कर्म्यन्तरेभ्यो विशिष्यते इति एवम् अर्थम् आह से सन्न्यासी च योगी च इति।

सन्न्यासः परित्यागः स यस्य अस्ति स सन्न्यासी च योगी च योगः चित्त समाधानं स यस्य अस्ति स योगी च इति एवं गुण संपन्नः अयं मन्तव्यः।

न केवलं निरग्निः अक्रिय एवं सन्न्यासी योगी च इति मन्तव्यः।

निर्गता अग्नयः कर्मांगभूता यस्मात् स निरग्निः अक्रियः च अनग्निसाधना अपि अविद्यमानाः क्रियाः तपोदानादिका यस्य असौ अक्रियः।।1।।

ऐसा जो कोई कर्मी है वह दूसरे कर्मियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है, इसी अभिप्राय से यह कहा है कि वह संन्यासी भी है और योगी भी है।

संन्यास नाम त्याग का है, वह जिसमें हो वही संन्यासी है और चित्त के समाधान का नाम योग है, वह जिसमें हो वही योगी है; अतः वह कर्मयोगी भी इन गुणों से संपन्न माना जाना चाहिए।

केवल अग्निरहित और क्रियारहित पुरुष ही संन्यासी और योगी है, ऐसा नहीं मानना चाहिए।

कर्मों के अंगभूत गार्हपत्यादि अग्नि जिससे छूट गये हैं, वह निरग्नि है और बिना अग्नि के होने वाली तप दानादि क्रिया भी जो नहीं करता वह अक्रिय है।।1।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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