श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
चतुर्थो अध्याययदा तु शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं शारीरं कर्म अभिप्रेतं भवेत् तदा दृष्टादृष्टप्रयोजनं कर्म विधिप्रतिषेधगम्यं शरीरवाङ्मनसनिर्वर्त्यम् अन्यद् अकुर्वन् तैः एव शरीरादिभिः शरीरस्थितिमात्रप्रयोजनं केवलशब्दप्रयोगाद् अहं करोमि इति अभिमानवर्जितः शरीरादिचेष्टामात्रं लोकदृष्ट्या कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम्। परंतु जब शरीर निर्वाहमात्र के लिए किए जाने वाले कर्म शारीरिक कर्म मान लिये जाएंगे, तब इसका यह अर्थ हो जाएगा कि इस लोक या परलोक के भोग ही जिनका प्रयोजन है, जो विधि निषेधात्मक शास्त्रों द्वारा जाने जाते हैं, जो शरीर, मन या वाणी द्वारा किये जाते हैं, से अन्य कर्मों को न करता हुआ उन शरीर, मन या वाणी से केवल शरीर निर्वाह के लिए आवश्यक कर्म लोकदृष्टि से करता हुआ पुरुष किल्बिष को प्राप्त नहीं होता। यहाँ ‘केवल’ शब्द के प्रयोग से यह अभिप्राय है कि वह ‘मैं करता हूँ’ इस अभिमान से रहित होकर केवल लोकदृष्टि से ही शरीर वाणी आदि की चेष्टामात्र करता है। एवम्भूतस्य पापशब्दवाच्यकिल्बिषप्राप्तसम्भवात् किल्बिषं संसारं न आप्नोति। ज्ञानाग्निदग्धसर्वकर्मत्वाद् अप्रतिबन्धेन मुच्यते एव इति। पूर्वोक्तसम्यग्दर्शनफलानुवाद एव एषः। एवम् ‘शारीरं केवलं कर्म’ इति अस्य अर्थपरिग्रहे निवद्यं भवति।।21।। त्यक्तसर्वपरिग्रहहस्य यतेः अन्नादेः शरीरस्थितिहेतोः परिग्रहस्य अभावाद् याचनादिना शरीरस्थितौ कर्तव्यतायां प्राप्तायाम् अयाचित मसङ्क्लृप्तमुपपन्नं यदृच्छया [1] इत्यादिना वचनेन अनुज्ञातं यतेः शरीर स्थितिहेतोः अन्नादेः प्राप्तिद्वारम् आविष्कुर्वन् आह- ऐसे पुरुष को पापरूप किल्बिष प्राप्त होना तो असम्भव है, इसलिए यहाँ यह समझना चाहिए कि वह किल्बष को यानी संसार को प्राप्त नहीं होता। ज्ञानरूप अग्नि द्वारा उसके समस्त कर्मों का नाश हो जाने के कारण वह बिना किसी प्रतिबंध के मुक्त ही हो जाता है। यह पहले कहे हुए यथार्थ आत्मज्ञान के फल का अनुवादमात्र है। ‘शारीरं केवलं कर्म’ इस वाक्य का इस प्रकार अर्थ मान लेने से वह अर्थ निर्दोष सिद्ध होताहै।।21।। जिसने समस्त संग्रह का त्याग कर दिया है, ऐसे संन्यासी के पास शरीर निर्वाह के कारण रूप अन्नादि का संग्रह नहीं होता, इसलिए उसोक याचनादि द्वारा शरीर निर्वाह करने की योग्यता प्राप्त हुई। इस पर ‘बिन याचना किये’, ‘बिना संकल्प के अथवा बिना इच्छा किए प्राप्त हुए’ इत्यादि वचनों से जो शास्त्र में संन्यासी के शरीर निर्वाह के लिए अन्नादि की प्राप्ति के द्वारा बतलाये गये हैं |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (बोधा. स्मृ. 21।8।12)
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