श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 171

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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चतुर्थो अध्याय

तेषां हि भिन्नदेवतायाजिनां फलाकाङ्क्षिणां क्षिप्रं शीघ्रं हि यस्मात् मानुषे लोके, मनुष्यलोके हि शास्त्राधिकारः।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके इति विशेषणाद् अन्येषु अपि कर्मफलसिद्धिं दर्शयति भगवान्। मानुषे लोके वर्णाश्रमादिकर्माधिकार इति विशेषः, तेषां वर्णाश्रमाद्यधिकारिकर्मणां फल सिद्धिः क्षिप्रं भवति कर्मजा कर्मणो जाता।।12।।

ऐसे उन भिन्न रूप से देवताओं का पूजन करने वाले फलेच्छुक मनुष्यों की इस मनुष्य लोक में (कर्म से उत्पन्न हुई) सिद्धि शीघ्र ही हो जाती है; क्योंकि मनुष्य लोक में शास्त्र का अधिकार है (यह विशेषता है)।

‘क्षिप्रं हि मानुषे लोके’ इस वाक्य में क्षिप्र विशेषण से भगवान् अन्य लोकों में भी कर्मफल की सिद्धि दिखलाते हैं।

पर मनुष्य लोक में वर्ण आश्रम आदि के कर्मों का अधिकार है, यह विशेषता है। उन वर्णाश्रम आदि में अधिकार रखने वालों के कर्मों की कर्मजनित फलसिद्धि शीघ्र होती है।।12।।

मानुषे एव लोके वर्णाश्रमादिकर्माधिकारो न अन्येषु लोकेषु इति नियमः किन्नमित्त इति।

अथवा वर्णाश्रमादिप्रविभागोपेता मनुष्या मम वर्त्म अनुवर्तन्ते सर्वश इति उक्तं कस्मात् पुनः कारणाद् नियमेन तव एव वर्त्म अनुवर्तन्ते न अन्यस्य इति उच्यते-

मनुष्य लोक में ही वर्णाश्रम आदि के कर्मों का अधिकार है, अन्य लोकों में नहीं, यह नियम किस कारण से है? यह बताने के लिए (अगला श्लोक कहते हैं)-

अथवा वर्णाश्रम आदि विभाग से युक्त हुए मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार बर्तते हैं- ऐसा आपने कहा, सो नियम पूर्वक वे आपके ही मार्ग का अनुसरण क्यों करते हैं, दूसरे के मार्ग का क्यों नहीं करते? इस पर कहते हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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