श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 152

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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तृतीय अध्याय

इस पर कहते हैं-

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।33।।

सदृशम् अनुरूपं चेष्टते कस्याः स्वस्याः स्वकीयायाः प्रकृतेः, प्रकृतिः नाम पूर्वकृत- धर्माधर्मादिसंस्कारो वर्तमानजन्मादौ अभिव्यक्तः सा प्रकृतिः तस्याः सदृशम् एव सर्वो जन्तुः ज्ञानवान् अपि किं पुनः मूर्खः।

तस्मात् प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति मम वा अन्यस्य वा।।33।।

यदि सर्वो जन्तुः आत्मनः प्रकृति सदृशम् एव चेष्टते न च प्रकृतिशून्यः कश्चिद् अस्ति, ततः पुरुषकारस्य विषयानुपपत्तेः, शास्त्रानर्थक्यप्राप्तौ इदम् उच्यते-

सभी प्राणी एवं ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही चेष्टा करते हैं अर्थात् जो पूर्वकृत पुण्य पाप आदि का संस्कार वर्तमान जन्मादि में प्रकट होता है, उसका नाम प्रकृति है, उसके अनुसार ज्ञानवान् भी चेष्टा किया करता है। फिर मूर्ख की तो बात ही क्या है?

इसलिए सभी प्राणी (अपनी) प्रकृति अर्थात् स्वभाव की ओर जा रहे हैं, इसमें मेरा या दूसरे का शासन क्या कर सकता है?।।33।।

यदि सभी जीव अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप ही चेष्टा करते हैं, प्रकृति से रहित कोई है ही नहीं, तब तो पुरुष के प्रयत्न की आवश्यकता न रहने से विधि निषेध बतलाने वाला शास्त्र निरर्थक होगा? इस पर यह कहते हैं-

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।34।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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