श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
तृतीय अध्यायलोकसङ्ग्रहः कः कर्तुम् अर्हति कथं च इति उच्यते- लोकसंग्रह किसको करना चाहिए और किसलिए करना चाहिए? सो कहते हैं- यद्यचरति श्रेष्ठस्त्तदेवेतरो जनः। यद् यत् कर्म आचरति येषु येषु श्रेष्ठः प्रधानः तत् तद् एव कर्म आचरति इतरः अन्यो जनः तदनुगतः। किं च स श्रेष्ठो यत् प्रमाणं कुरुते लौकिकं वैदिकं वा लोकः तद् अनुवर्तते तद् एव प्रमाणीकरोति इत्यर्थः।।21।। यदि अत्र ते लोकसङ्ग्रकर्तव्यतायां विप्रतिपत्तिः तर्हि मां किं न पश्यसि- श्रेष्ठ पुरुष जो-जो कर्म करता है अर्थात् प्रधान मनुष्य जिस जिस कर्म में बर्तता है, दूसरे लोग उसके अनुयायी होकर उस-उस कर्म का ही आचरण किया करते हैं। तथा वह श्रेष्ठ पुरुष जिस-जिस लौकिक या वैदिक प्रथा को प्रामाणिक मानता है, लोग उसी के अनुसार चलते हैं अर्थात् उसी को प्रमाण मानते हैं।।21।। यदि इस लोकसंग्रह की कर्तव्यता में तुझे कुछथ शंका हो तो तू मुझे क्यों नहीं देखता- न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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