श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 131

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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तृतीय अध्याय

पू.- कर्मों का आरंभ नहीं करने से निष्कर्म भाव को प्राप्त नहीं होता- इस कथन से यह पाया जाता है कि इसके विपरीत करने से अर्थात् कर्मों का आरंभ करने से मनुष्य निष्कर्मभाव को पाता है, सो (इसमें) क्या कारण है कि कर्मों का आरंभ किये बिना मनुष्य निष्कर्मता को प्राप्त नहीं होता?

उ.- क्योंकि कर्मों का आरंभ ही निष्कर्मता की प्राप्ति का उपाय है और उपाय के बिना उपेय की प्राप्ति हो नहीं सकती, यह प्रसिद्ध ही है।

निष्कर्मता रूप ज्ञानयोग का उपाय कर्मयोग है, यह बात श्रुति में और यहाँ गीता में भी प्रतिपादित है।

श्रुति में प्रस्तुत ज्ञेयरूप आत्मलोक के जानने का उपाय बतलाते हुए ‘उस आत्मा को ब्राह्मण वेदाध्ययन और यज्ञ से जानने की इच्छा करते हैं’ इत्यादि वचनो से कर्मयोग को ज्ञानयोग का उपाय बतलाया है।

तथा यहाँ (गीताशास्त्र में) भी- ‘हे महाबाहो! बिना कर्म योग के संन्यास प्राप्त करना कठिन है’, ‘योगी लोग आसक्ति छोड़कर अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म किया करते हैं’, ‘यज्ञ, दान और तप बुद्धिमानों को पवित्र करने वाले हैं’ इत्यादि वचनो से आगे प्रतिपादित करेंगे।

यहाँ यह शंका होती है कि ‘सब भूतों को अभयदान देकर संन्यास ग्रहण करे, इत्यादि वचनों में कर्तव्यकर्मों के त्याग द्वारा भी निष्कर्मता की प्राप्ति दिखलायी है और लोक में भी कर्मों का आरंभ न करने से निष्कर्मता का प्राप्त होना अत्यंत प्रसिद्ध है। फिर निष्कर्मता चाहने वाले को कर्मों के आरंभ से क्या प्रयोजन? इस पर कहते हैं-’

केवल संन्यास से अर्थात् बिना ज्ञान के केवल कर्म परित्याग मात्र से मनुष्यक निष्कर्मता रूप सिद्धि को अर्थात् ज्ञानयोग से होने वाली स्थिति को नहीं पाता।।4।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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