श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 127

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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तृतीय अध्याय

तत्र का सा द्विविधा निष्ठा इति आह- ज्ञानयोगेन ज्ञानम् एव योगः तेन साङ्ख्यानाम् आत्मानात्मविषयविवेकज्ञानवतां ब्रह्मचर्या श्रमाद् एव कृतसन्न्यासानां वेदान्तविज्ञान सुनिश्चितार्थानां परमहंसपरिव्राजकानां ब्रह्मणि एव अवस्थितानां निष्ठा प्रोक्ता।

कर्मयोगेन कर्म एव योगः कर्मयोगः तेन कर्मयोगेन योगिनां कर्मिणां निष्ठा प्रोक्ता इत्यर्थः।

यदि च एकेन पुरुषेण एकस्मै पुरुषार्थाय ज्ञानं कर्म च समुच्चित्य अनुष्ठेयं भगवता इष्टम् उक्त वक्ष्यमाणं वा गीतासु वेदेषु च उक्तम्। कथम् इह अर्जुनाय उपसन्नाय प्रियाय विशिष्ट भिन्नपुरुषकर्तृके एव ज्ञानकर्मनिष्ठे ब्रूयात्।

यदि पुनः अर्जुनो ज्ञानं कर्म च द्वयं श्रुत्वा स्वयम् एव अनुष्ठास्यति अन्येषां तु भिन्नपुरुषा नुष्ठेयतां वक्ष्यामि इति मतं भगवतः कल्प्येत। तदा रागद्वेषवान् अप्रमाणभूतो भगवान् कल्पितः स्यात्। तत् च अयुक्तम्।

तस्मात् कया अपि युक्त्या न समुच्चयो ज्ञानकर्मणोः।

यद् अर्जुनेन उक्तं कर्मणो ज्यायस्त्वं बुद्धेः तत् च स्थितम् अनिराकरणात्।

तस्याः च ज्ञाननिष्ठायाः सन्न्यासिनाम् एव अनुष्ठेयत्वं भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्ववचनात् च भगवत एवम् एव अनुमतम् इति गम्यते।।3।।

वह दो प्रकार की निष्ठा कौन सी हैं? सो कहते हैं-

जो आत्म अनात्म के विषय में विवेकजन्य ज्ञान से संपन्न हैं, जिन्होंने ब्रह्मचर्य आश्रम से ही संन्यास ग्रहण कर लिया है, जिन्होंने वेदान्त के विज्ञान द्वारा आत्मतत्व का भलीभाँति निश्चय कर लिया है, जो परमहंस संन्यासी हैं, जो निरंतर ब्रह्म में स्थित हैं ऐसे सांख्ययोगियों की निष्ठा ज्ञानरूप योग से कही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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