श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
(उपोद्घात)ऊँ नारायणः परोऽव्यक्तादण्डमव्यक्तसम्भवम्। अव्यक्त से अर्थात् माया से श्रीनारायण – आदि पुरुष सर्वथा अतीत (अस्पृष्ट) हैं, संपूर्ण ब्रह्माण्ड अव्यक्त- प्रकृति से उत्पन्न हुआ है, ये भूः भुवः आदि सब लोक और सात द्वीपों वाली पृथिवी ब्रह्माण्ड के अंतर्गत है। स भगवान् सृष्टा इदं जगत् तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः मरीच्यादीन अग्रे सृष्टा प्रजापतीन् प्रवृत्तिलक्षणं धर्म ग्राह्यामास वेदोक्तम्। ततः अन्यान् च सनकसनन्दनादीन् उत्पाद्य निवृत्तिलक्षणं धर्म ज्ञानवैराग्यलक्षणं ग्राहयामास। जगतः स्थितिकारणं प्राणिनां साक्षात् अभ्युदयनिः श्रेयसहेतुः यः स धर्मो ब्राह्णाद्यैः वर्णिभिः आश्रमिभिः च श्रेयोऽर्थिभिः अनुष्ठीयमानः।' उस भगवान् ने इस जगत् को रचकर इसके पालन करने की इच्छा करते हुए पहले मरीचि आदि प्रजापतियों को रचकर उनको वेदोक्त प्रवृत्तिरूप धर्म (कर्मयोग) ग्रहण करवाया। फिर उनसे अलग सनक, सनन्दनादि ऋषियों को उत्पन्न करके उनको ज्ञान और वैराग्य जिसके लक्षण हैं ऐसा निवृत्तिरूप धर्म (ज्ञानयोग) ग्रहण करवाया। वेदोक्त धर्म दो प्रकार का है- एक प्रवृत्ति रूप, दूसरा निवृत्तिरूप। जो जगत् की स्थिति का कारण तथा प्राणियों की उन्नति का और मोक्ष का साक्षात् हेतु है एवं कल्याणकामी ब्राह्मणादि वर्णाश्रम- अवलंबियों द्वारा जिसका अनुष्ठान किया जाता है उसका नाम धर्म है। दीर्घेण कालेन अनुष्ठातृणां कामोद्भवाद् हीयमानविवेकविज्ञानहेतुकेन अधर्मेण अभिभूयमाने धर्मे प्रवर्धमाने च अधर्मे, जगतः स्थितिं परिपिपालयिषुः स आदिकर्ता नारायणाख्यो विष्णुः भौमस्य ब्रह्मणो ब्राह्मणत्वस्य रक्षणार्थ देवक्यां वसुदेवाद् अंशेन कृष्णः किल संबभूव। ब्राह्मणत्वस्य हि रक्षणेन रक्षितः स्याद् वैदिको धर्मः तदधीनत्वाद् वर्णाश्रमभेदानाम्। स च भगवान् ज्ञानैश्वर्यशक्तिबलवीर्य तेजोभिः सदा संपन्नः त्रिगुणात्मिकां वैष्णवीं स्वां मायां मूलप्रकृतिं वशीकृत्य अजः अव्ययो भूतानाम् ईश्वरो नित्यशुद्धबुद्ध मुक्तस्वभावः अपि सन् स्वमायया देहवान् इव जात इव च लोकानुग्रहं कुर्वन् इव लक्ष्यते।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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