श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 118

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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तृतीय अध्याय

दूसरी बात यह भी है कि यदि ऊर्ध्वरेताओं को मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान के साथ केवल स्मार्त कर्म के समुच्चय की ही आवश्यकता है तो इस न्याय से गृहस्थों के लिए भी केवल स्मार्त कर्मों के साथ ही ज्ञान का समुच्चय आवश्यक समझा जाना चाहिए, श्रौतकर्मों के साथ नहीं।

पू.- यदि ऐसा मानें कि गृहस्थ को ही मोक्ष के लिए श्रौत और स्मार्त दोनों प्रकार के कर्मों के साथ ज्ञान के समुच्चय की आवश्यकता है, ऊर्ध्वरेताओं का तो केवल स्मार्त कर्मयुक्त ज्ञान से मोक्ष हो जाता है?

उ.- ऐसा मान लेन से तो गृहस्थ के ही सिर पर विशेष परिश्रमयुक्त और अति दुःखरूप श्रौत स्मार्त दोनों प्रकार के कर्मों का बोझ लादना हुआ।

पू. – यदि कहा जाय कि बहुत परिश्रम होने के कारण गृहस्थ की ही मुक्ति होती है, (अन्य आश्रमों में) श्रौत नित्यकर्मों का अभाव होने के कारण अन्य आश्रम वालों का मोक्ष नहीं होता तो?

उ.- यह भी ठीक नहीं; क्योंकि सब उपनिषद्, इतिहास, पुराण और योगशास्त्रों में मुमुक्षु के लिए ज्ञान का अंग मानकर सब कर्मों के संन्यास का विधान किया है तथा श्रुति स्मृतियों में आश्रमों के विकल्प और समुच्चय भी विधान है।*

पू.- तब तो सभी आश्रम वालों के लिए ज्ञान और कर्म का समुच्चय सिद्ध हो जाता है।

उ.- नहीं; क्योंकि मुमुक्षु के लिए सर्व कर्मों के त्याग का विधान है।

‘व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति।’[1] ‘तस्मात्सन्न्यासमेषां तपसामतिरिक्तमाहुः।’ [2] ‘न्यास एवात्यरेचयत्’[3] इति ‘न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैकेऽमृतत्वमानशुः’ [4] इति च। ‘ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्’ [5] इत्याद्याः श्रुतयः।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (बृह. उ. 3।5।1)
  2. (ना. उ. 2।79)
  3. (ना. उ. 2।78)
  4. (ना. उ. 2।12)
  5. (जाबा उ. 4)

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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