श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
तृतीय अध्यायदूसरी बात यह भी है कि यदि ऊर्ध्वरेताओं को मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान के साथ केवल स्मार्त कर्म के समुच्चय की ही आवश्यकता है तो इस न्याय से गृहस्थों के लिए भी केवल स्मार्त कर्मों के साथ ही ज्ञान का समुच्चय आवश्यक समझा जाना चाहिए, श्रौतकर्मों के साथ नहीं। पू.- यदि ऐसा मानें कि गृहस्थ को ही मोक्ष के लिए श्रौत और स्मार्त दोनों प्रकार के कर्मों के साथ ज्ञान के समुच्चय की आवश्यकता है, ऊर्ध्वरेताओं का तो केवल स्मार्त कर्मयुक्त ज्ञान से मोक्ष हो जाता है? उ.- ऐसा मान लेन से तो गृहस्थ के ही सिर पर विशेष परिश्रमयुक्त और अति दुःखरूप श्रौत स्मार्त दोनों प्रकार के कर्मों का बोझ लादना हुआ। पू. – यदि कहा जाय कि बहुत परिश्रम होने के कारण गृहस्थ की ही मुक्ति होती है, (अन्य आश्रमों में) श्रौत नित्यकर्मों का अभाव होने के कारण अन्य आश्रम वालों का मोक्ष नहीं होता तो? उ.- यह भी ठीक नहीं; क्योंकि सब उपनिषद्, इतिहास, पुराण और योगशास्त्रों में मुमुक्षु के लिए ज्ञान का अंग मानकर सब कर्मों के संन्यास का विधान किया है तथा श्रुति स्मृतियों में आश्रमों के विकल्प और समुच्चय भी विधान है।* पू.- तब तो सभी आश्रम वालों के लिए ज्ञान और कर्म का समुच्चय सिद्ध हो जाता है। उ.- नहीं; क्योंकि मुमुक्षु के लिए सर्व कर्मों के त्याग का विधान है। ‘व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति।’[1] ‘तस्मात्सन्न्यासमेषां तपसामतिरिक्तमाहुः।’ [2] ‘न्यास एवात्यरेचयत्’[3] इति ‘न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैकेऽमृतत्वमानशुः’ [4] इति च। ‘ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्’ [5] इत्याद्याः श्रुतयः।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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