श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 116

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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तृतीय अध्याय

कथम् तत्र सम्बन्धग्रन्थे तावत्- सर्वेषाम् आश्रमिणां ज्ञानकर्मणोः समुच्चयो गीताशास्त्रे निरूपितः अर्थ इति उक्तम्, पुनः विशेषितं च यावज्जीवश्रुतिचोदितानि कर्माणि परित्यज्य केवलाद् एव ज्ञानाद् मोक्षः प्राप्यते इति एतद् एकान्तेन एव प्रतिषिद्धम् इति।

इह तु आश्रमविकल्पं दर्शयता यावज्जीव- श्रुतिचोदितानाम् एव कर्मणां परित्याग उक्तः।

तत् कथम् ईदृशं विरुद्धम् अर्थम् अर्जुनाय ब्रूयात् भगवान्, श्रोता वा कथं विरुद्धम् अर्थम् अवधारयेत्।

तत्र एतत् स्याद् गृहस्थानाम् एव श्रौतकर्म परित्यागेन केवलाद् एव ज्ञानाद् मोक्षः प्रतिषिध्यते न तु आश्रमान्तराणाम् इति।

एतद् अपि पूर्वोत्तरविरुद्धम् एव। कथम्, सर्वाश्रमिणां ज्ञानकर्मणोः समुच्चयो गीता शास्त्रे निश्चितः अर्थ इति प्रतिज्ञाय इह कथं तद्विरुद्धं केवलाद् एव ज्ञानाद् मोक्षं ब्रूयाद् आश्रमान्तराणाम्।

अथ मतं श्रौतकर्मापेक्षया एतद् वचनं केवलाद् एव ज्ञानात् श्रौतकर्मरहिताद् गृहस्थानां मोक्षः प्रतिषिध्यते इति। तत्र गृहस्थानां विद्यमानम् अपि स्मार्तं कर्म अविद्यमानवद् उपेक्ष्य ज्ञानाद् एव केवलाद् न मोक्ष इति उच्यते इति।

कैसे? (सो कहते हैं कि)- वहाँ भूमिका में तो (उन टीकाकारों ने) ऐसे कहा है कि गीता शास्त्र में सब आश्रम वालों के लिए ज्ञान और कर्म का समुच्चय निरूपण किया है और विशेषरूप से यह भी कहा है कि ‘जब तक जीवे अग्निहोत्रादि कर्म करता रहे’ इत्यादि श्रुतिविहित कर्मों का त्याग कररके केवल ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है, इस सिद्धांत का गीताशास्त्र में निश्चित रूप से निषेध है।

परंतु यहाँ (तीसरे अध्याय में) उन्होंने आश्रमों का विकल्प दिखलाते हुए ‘जदब तक जीवे’ इत्यादि श्रुतिविहित कर्मों का ही त्याग बतलाया है।

इससे यह शंका होती है कि इस प्रकार के विरुद्ध अर्थ वाले वचन भगवान् अर्जुन से कैसे कहते और सुनने वाला (अर्जुन) भी ऐसे विरुद्ध अर्थ को कैसे स्वीकार करता?

पू.- यदि वहाँ (भूमिका में) ऐसा अभिप्राय हो गृहस्थ के लिए ही श्रौत कर्म के त्यागपूर्वक केवल ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का निषेध किया है, दूसरे आश्रमवालों के लिए नहीं, तो?

उ.- यह भी पूर्वापरविरुद्ध ही है; क्योंकि सभी आश्रमवालों के लिए ज्ञान और कर्म का समुच्चय गीताशास्त्र का निश्चित अभिप्राय है ऐसी प्रतिज्ञा करके उसकके विपरीत यहाँ दूसरे आश्रमवालों के लिए वे केवल ज्ञान से मोक्ष कैसे बतलाते?

पू.- कदाचित् ऐसा मान लें कि यह कहना श्रौतकर्म की अपेक्षा से है अर्थात् श्रौतकर्म से रहित केवल ज्ञान से गृहस्थों के लिए मोक्ष का निषेध किया गया है, उसमें जो, केवल ज्ञान से गृहस्थों का मोक्ष नहीं होता, ऐसा कहा है कि वह विद्यमान स्मार्त- कर्म की भी अविद्यमान के सदृश उपेक्षा करके कहा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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