श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 133

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग सोरठ

120
तन मन नारि डारति वारि।
स्याम सोभा सिंधु जान्यौ अंग अंग निहारी ॥1॥
पचि रहीं मन ग्यान करि करि लहतिं नाहिन तीर।
स्याम तन जल रासि पूरन महा गुन गंभीर ॥2॥
पीतपट फहरानि मानौ लहरि उठति अपार।
निरखि छबि थकि तीर बैठी कहूँ वार न पार ॥3॥
चलत अंग त्रिभंग करि कैं भौंहे भाव कैं भौंहे भाव चलाइ।
मनौ बिच बिच भँवर डोलत चित परत भरमाइ ॥4॥
स्त्रवन कुंडल मकर मानौ नैन मीन बिसाल।
सलिल झलकानि रुप आभा देखि री नँदला ॥5॥
बाहु दंड भुजंग मानौ जलधि मध्य बिहार।
मुक्त माला मनौ सुरसरि ह्वै चली द्वै धार ॥6॥
अंग अँग भूषन बिराजत कनक मुकुट प्रभास।
उदधि मथि मनु प्रगट कीन्हौ श्री सुधा परगास ॥7॥
चकित भइँ तिय निरखि सोभा देह गति बिसराइ।
सूर प्रभु छबि रासि नागर जानि जाननिराइ ॥8॥

( व्रजकी ) नारियाँ ( मोहनपर अपना ) तन-मन न्योछावर कर देती है । अंग-प्रत्यंग निहारकर उन्होने समझ लिया कि श्याम शोभाके समुद्र है । चित्तमे उपाय सोच-सोचकर वे हार गयी; किन्तु ( उसका ) किनारा नही पाती है; ( क्योकि ) श्यामका शरीर महान गुणरुपसमूहरुपी गम्भीर जलराशिसे परिपूर्ण है । पीताम्बरका फहराना क्या है मानो श्यामशोभा सिन्धुमे अपार लहरे उठ रही हो । इस शोभाको देख वे हारकर किनारे बैठ गयी; ( क्योकि ) इसका तो कही वार-पार ( तट ) उन्हे नही दीख पडता । मन-मोहन अंगोको त्रिभंग बनाकर ( तिरछे झुककर ) चलते हुए ( जब ) भौंहोंको भावसे चलाते ( मटकाते ) है तब मानो ( ऐसा लगता है कि उस शोभासागरके ) बीचबीचमे भँवर पड रहे हो जिनमे चित्त भ्रममे पड जाता ( मुग्ध होकर डूब जाता ) है । कानोंके कुण्डल मानो ( उस शोभा-सागरके ) मगर है नेत्र बडे-बडे मत्स्य है रुपकी जो कान्ति झलक रही है वही जल है । ऐसे नन्दलालको सखी ! देख । दोनो धाराओंमे विभक्त होकर प्रवाहित हो चली है । अंग-प्रत्यंगमे आभूषण शोभित है स्वर्णका मुकुट प्रकाशित हो रहा है मानो समुद्रका मन्थन करके लक्ष्मी और अमृतका प्रकाश प्रकट कर दिया गया हो । ( व्रज- ) नारियाँ इस शोभाको देखकर आश्चर्यचकित हो गयी यहाँतक कि वे अपने शरीरकी दशा भी भूल गयी । सूरदासजी कहते है- मेरे स्वामी शोभाकी राशि है परम चतुर है उन्हे भाव समझानेवालोंका स्वामी जानना चाहिये ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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