श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 132

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग बिहागरौ

119
देखि री देखि सोभा रासि।
काम पटतर कह दीजै रमा जिन की दासि ॥1॥
मुकुट सीस सिखंड सोहै निरखि रहिं ब्रज नारि।
कोटि सुर कोदंड आभा झिरकि डारैं वारि ॥2॥
केस कुंचित बिथुरि भ्रुव पै बीच सोभा भाल।
मनौ चंदै अबल जान्यौ राहु घेर्यौच जाल ॥3॥
चारु कुंडल सुभग स्त्रवनन को सकै उपमाइ ॥4॥
सुभग मुख पै चारु लोचन नासिका इहि भाँति।
मनौ खंजन बीच सुक मिलि बैठे है इक पाँति ॥5॥
सुभग नासा तर अधर छबि रस धरैं अरुनाइ।
मनौ बिंब निहारि सुक भ्रुव धनुष देखि डराइ ॥6॥
हँसत दसनन चमकताई ब्रज कन रचि पाँति।
दामिनी दारिम नही सरि कियौ मन अति भ्राँति ॥7॥
चिबुक बर चित बित चुरावत नवल नंद किसोर।
सूर प्रभु की निरखि सोभा भईं तरुनी भोर ॥8॥

( गोपी कह रही है- ) सखी ! इस शोभाराशि को देख उनकी तुलना कामदेव से किस प्रकार की जाय जिनकी लक्ष्मी सेविका है ! मस्तक पर मयूरपिच्छ का मुकुट शोभित है जिसे व्रज की स्त्रियाँ देख रही है और करोडो इन्द्रधनुषकी कान्तिको भी तिरस्कार करती ( उनपर ) न्योछावर कर फेंक रही है । भौंहों तक बिखरे हुए घुँघराले केश ललाट के मध्यमे ऐसे शोभित है मानो चन्द्रमा को निर्बल समझकर ( पकडनेके लिये ) राहुने जालसे घेर लिया हो । मनोहर कानों मे सुन्दर कुण्डल है उनकी उपमा कौन दे सकता है । करोडो-करोडो सूर्योंकी कला और शोभा भी उन ( कुण्डलो ) को देखकर भ्रममे पड जाती है । सुन्दर मुखपर मनोहर नेत्र एवं नासिका इस प्रकार फब रही है । मानो दो खञ्जनोंके मध्य तोता मिलकर एक पंक्तिमे बैठा हो । मनोहर नासिकाके नीचे सरस अरुणिमा लिये ओठोंकी ऐसी छटा है मानो बिम्बफलको देखकर तोता उसे लेना चाहता हो किंतु ( पासमे ही ) भौंहेरुपी धनुष देखकर डर रहा हो । हँसते समय दाँत ऐसे चकमते है मानो हीरेके कणोंकी पंक्ति हो । विद्युत और अनार के दाने भी उनकी तुलना मे नही ठहरते प्रत्युत मनमे अत्यन्त भ्रान्त हो जाते है । नवल नन्दकिशोर की श्रेष्ठ ठुड्डी चित्तरुपी धन को चुरा लेती है । सूरदासजी कहते है मेरे स्वामी की शोभा देखकर व्रजतरुणियाँ प्रेम मे विभोर हो गयी ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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