श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 118

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग मलार

105
नैना ( माई ) भूलैं अनत न जात।
देखि सखी ! सोभा जु बनी है मोहन के मुसुकात ॥1॥
दाडिम दसन निकट नासा सुक चौंच चलाइ न खात।
मनु रतिनाथ हाथ भ्रुकुटी धनु तिहि अवलोकि डरात ॥2॥
बदन प्रभामय चंचल लोचन आनँद उर न समात।
मानौ भौंहे जुवा रथ जोते ससि नचवत मृग मात ॥3॥
कुंचित केस अधर धुनि मुरली सूरदास सुरसात।
मनौ कमल पहँ कोकिल कूजत अलिगन उपर उडात ॥4॥

( गोपी कह रही है- ) सखी ! ( मेरे ) नेत्र भूलकर भी अन्यत्र नही जाते ( और कुछ नही देखना चाहते ) । सखी ! मुस्कराते समय मोहनकी जो शोभा बनी है उसे ( तू भी ) देख । अनार-दानोंके समान दाँतोके पास नासिकारुप तोता है जो चोंच बढाकर ( उन्हे ) खा नही पा रहा है ( क्योंकि ) मानो कामदेवके हाथोमे जो भौंहेरुपी धनुष है उसीको देखकर वह डर रहा है । कान्तिमय मुखमे चञ्चल नेत्रोंके देखकर हृदयमे आनन्द समाता नही । ऐसा लगता है मानो मुखरुपी रथके भौंहेरुपी जुएमे जोतकर चंद्रमा उन्मत्त ( अनियंत्रित नेत्ररुपी ) मृगोको नचा रहा हो । सूरदासजी कहते है- घुँघराले केश है ओठोंसे सात स्वरावली अत्यन्त रसमयी वंशीकी ध्वनि हो रही है मानो कमलके समीप ( बैठी ) कोकिल कूज रही हो और भौंरे ऊपर उड रहे हो ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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