शुद्ध प्रेम राधा-माधव का सहज मिटा देता सब चाह।
रहती नहीं मोक्ष-सुख-इच्छा, नहीं नरक दुख की परवाह॥
भोगकामना, निज-इन्द्रिय-सुख की न वासना रहती शेष।
हो जाते युग-युग के सारे दुःखप्रद अभाव निःशेष॥
मिट जाते मद-मान-गर्व-ममता-आसक्ति, ईरषा-डाह।
छा जाते मन त्याग-प्रेम-आनन्द, नहीं रहता उर-दाह॥
लाभ-हानि, सुख-दुःख, शुभाशुभ का रह पाता नहीं विवेक।
एकमात्र प्रियतम-सुख ही जीवन-स्वभाव-जीवन की टेक॥
सहज समर्पण हो जाता सब, रहता नहीं किंतु वह याद।
कहीं तनिक अभिमान न रहता, होता प्रकट दैन्य अविवाद॥
पाता वह अनन्त सुख अनुपम प्रियतम को लख सुखी अगाध।
बार-बार सुख देने की बढ़ती परंतु उसके मन साध॥
त्याग बिना न कभी हो पाता प्रेमराज्य में तनिक प्रवेश।
भुक्ति-मुक्ति, निज सुख-इच्छा का रहता नहीं तनिक-सा लेश॥
तब भगवान् स्वयं बन जाते उसके प्रियतम प्राणाराम।
जग उठती उनके मन ‘रस-आस्वादन’ की लालसा ललाम॥