रसमय, रसिक, रससुधा-सागर स्वयं नित्य जो हैं रसराज।
वे अतृप्त नित करते उस रस का आस्वादन, तज सब लाज॥
इसीलिये वे राधा-गोपीजन के रहते नित्य अधीन।
ऋण न चुका सकते वे उनका, नित्य मानते निज को दीन॥
राधा इधर मानती निज को, नित्य प्रेमधन की कंगाल।
सदा सकुचती रहती निज प्रति लख प्रियतम का भाव रसाल॥
इस पवित्रतम प्रेमराज्य का रख मन में आदर्श महान्।
मानवमात्र त्यागपथ पर चल भजें नित्य रसनिधि भगवान्॥
राधा-गोपी-प्रेम मधुर पावन का यह संदेश उदार।
दुर्लभ जो अति मधुर-सुधा-भगवद्रस का शुचि पारावार॥
मानव-जीवन का हो यह बस, एकमात्र शुभ लक्ष्य पवित्र।
शुद्ध प्रेम-रस-सागर में निमग्र रहना संतत सर्वत्र॥
राधाष्टमी-महोत्सव का है केवल यही लाभ अति श्रेष्ठ।
एकमात्र श्रीराधामाधव बन जायें जीवन के श्रेष्ठ॥