प्रेम सुधा सागर पृ. 52

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
आठवाँ अध्याय

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हितैषिणी यशोदा ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया[1]। उस समय श्रीकृष्ण की आँखें डर के मारे नाच रहीं थीं[2]। यशोदा मैया ने डाँटकर कहा - ‘क्यों रे नटखट! तू बहुत ढीठ हो गया है। तूने अकेले में छिपकर मिट्टी क्यों खायी ? देख तो तेरे दल के तेरे सखा क्या कह रहे हैं! तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हीं ओर से गवाही दे रहें हैं’ ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - ‘माँ! मैंने मिट्टी नहीं खायी। ये सब झूठ बक रहें हैं। यदि तुम इन्हीं की बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखों से देख लो। यशोदा जी ने कहा - ‘अच्छी बात। यदि ऐसा है, तो मुँह खोल।’ माता के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया[3]

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य अनन्त है। वे केवल लीला के लिए ही मनुष्य के बालक बने हुए हैं ।यशोदा जी ने देखा कि उनके मुँह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है। आकाश [4], दिशाएँ, पहाड़, द्वीप और समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहने वाली वायु, विद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वियत [5], वैकारिक अहंकार के कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्ण के मुख में दीख पड़े। परीक्षित! जीव, काल, स्वाभाव, कर्म, उसकी वासना और शरीर आदि के द्वारा विभिन्न रूपों में दीखने वाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण ब्रज और अपने-आपको भी यशोदा जी ने श्रीकृष्ण के नन्हें से खुले हुए मुख में देखा। वे बड़ी शंका में पड़ गयीं। वे सोचने लगीं कि ‘यह कोई स्वप्न है या भगवान की माया? कहीं मेरी बुद्धि में ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया है? सम्भव है, मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो।' ‘जो चित्त, मन, कर्म और वाणी के द्वारा ठीक-ठीक तथा सुगमता से अनुमान के विषय नहीं होते, यह सारा विश्व जिनके आश्रित है, जो इसके प्रेरक हैं और जिनकी सत्ता से ही इसकी प्रतीति होती है, जिसका स्वरूप सर्वथा अचिन्त्य है - उन प्रभु को मैं प्रणाम करती हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यशोदा जी जानती थीं कि इस हाथ ने मिट्टी खाने में सहायता की है। चोर का सहायक भी चोर ही है। इसलिये उन्होंने हाथ ही पकड़ा।
  2. भगवान के नेत्र में सूर्य और चद्रमा का निवास है। वे कर्म के साक्षी हैं। उन्होंने सोचा कि पता नहीं श्रीकृष्ण मिट्टी खाना स्वीकार करेंगे कि मुकर जायँगे। अब हमारा कर्तव्य क्या है। इसी भाव को सूचित करते हुए दोनों नेत्र चकराने लगे।
    1. माँ! मिट्टी खाने के सम्बन्ध में ये मुझ अकेले का ही नाम ले रहे हैं। मैंने खायी, तो सबने खायी, देख लो मेरे मुख में सम्पूर्ण विश्व!
    2. श्रीकृष्ण ने विचार किया कि उस दिन मेरे मुख में विश्व देखकर माता ने अपने नेत्र बंद कर लिये थे। आज भी जब मैं अपना मुँह खोलूँगा, तब यह अपने नेत्र बंद कर लेगी। यह विचार कर मुख खोल दिया।
  3. वह शून्य जिसमें किसी की गति नहीं
  4. प्राणियों के चलने-फिरने का आकाश

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