प्रेम सुधा सागर पृ. 51

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
आठवाँ अध्याय

Prev.png

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य अनन्त है। वे केवल लीला के लिए ही मनुष्य के बालक बने हुए हैं ।यशोदा जी ने देखा कि उनके मुँह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है। आकाश[1], दिशाएँ, पहाड़, द्वीप और समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहने वाली वायु, विद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वियत[2], वैकारिक अहंकार के कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्ण के मुख में दीख पड़े। परीक्षित! जीव, काल, स्वाभाव, कर्म, उसकी वासना और शरीर आदि के द्वारा विभिन्न रूपों में दीखने वाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण ब्रज और अपने-आपको भी यशोदा जी ने श्रीकृष्ण के नन्हें से खुले हुए मुख में देखा। वे बड़ी शंका में पड़ गयीं। वे सोचने लगीं कि ‘यह कोई स्वप्न है या भगवान की माया? कहीं मेरी बुद्धि में ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया है? सम्भव है, मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो।' ‘जो चित्त, मन, कर्म और वाणी के द्वारा ठीक-ठीक तथा सुगमता से अनुमान के विषय नहीं होते, यह सारा विश्व जिनके आश्रित है, जो इसके प्रेरक हैं और जिनकी सत्ता से ही इसकी प्रतीति होती है, जिसका स्वरूप सर्वथा अचिन्त्य है - उन प्रभु को मैं प्रणाम करती हूँ।

ऐसा करके भी ढिठाई की बातें करता है - उलटे हमें ही चोर बनाता और अपने घर का मालिक बन जाता है। इतना ही नहीं, यह हमारे लिपे-पुते स्वच्छ घरों में मूत्र आदि भी कर देता है। तनिक देखो तो इसकी ओर, वहाँ तो चोरी के अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है मानो पत्थर की मूर्ति खड़ी हो! वाह रे भोले-भाले साधु!’ इस प्रकार गोपियाँ कहतीं जातीं और श्रीकृष्ण के भीत-चकित नेत्रों से मुखमंडल को देखती जातीं। उनकी यह दशा देखकर नन्दरानी यशोदा उनके मन का भाव ताड़ लेतीं और उनके हृदय में स्नेह और आनन्द की बाढ़ आ जाती।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वह शून्य जिसमें किसी की गति नहीं
  2. प्राणियों के चलने-फिरने का आकाश

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः