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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
छाछठवाँ अध्याय
परीक्षित! भगवान सबके बाहर-भीतर की जानने वाले हैं। वे जान गये कि यह काशी से चली हुई माहेश्वरी कृत्या है। उन्होंने उसके प्रतीकार के लिये अपने पास ही विराजमान चक्र सुदर्शन को आज्ञा दी। भगवान मुकुन्द का प्यारा अस्त्र सुदर्शन चक्र कोटि-कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी और प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान है। उसके तेज से आकाश, दिशाएँ और अन्तरिक्ष चमक उठे और अब उसने उस अभिचार-अग्नि को कुचल डाला। भगवान श्रीकृष्ण के अस्त्र सुदर्शन चक्र की शक्ति से कृत्यारूप आग का मुँह टूट-फूट गया, उसका तेज नष्ट हो गया, शक्ति कुण्ठित हो गयी और वह वहाँ से लौटकर काशी आ गयी तथा उसने ऋत्विज् आचार्यों के साथ सुदक्षिण को जलाकर भस्म कर दिया। इस प्रकार उसका अभिचार उसी के विनाश का कारण हुआ। कृत्या के पीछे-पीछे सुदर्शन चक्र भी काशी पहुँचा। काशी बड़ी विशाल नगरी थी। वह बड़ी-बड़ी अटारियों, सभा भवन, बाजार, नगरद्वार, द्वारों के शिखर, चहारदीवारियों, खजाने, हाथी, घोड़े, रथ और अन्नों के गोदाम से सुसज्जित थी। भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र ने सारी काशी को जलाकर भस्म कर दिया और फिर वह परमानन्दमयी लीला करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के पास लौट आया। जो मनुष्य पुण्यकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के इस चरित्र को एकाग्रता के साथ सुनता या सुनाता है, वह सारे पापों से छूट जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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