प्रेम सुधा सागर पृ. 445

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
छाछठवाँ अध्याय

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भगवान शंकर ने कहा- ‘तुम ब्राह्मणों के साथ मिलकर यज्ञ के देवता ऋत्विग्भूत दक्षिणाग्नि की अभिचार विधि से आराधना करो। इससे वह अग्नि प्रमथगणों के साथ प्रकट होकर यदि ब्राह्मणों के अभक्तपर प्रयोग करोगे तो वह तुम्हारा संकल्प सिद्ध करेगा।’

भगवान शंकर की ऐसी आज्ञा प्राप्त करके सुदक्षिण ने अनुष्ठान के उपयुक्त नियम ग्रहण किये और वह भगवान श्रीकृष्ण के लिये अभिचार (मारण का पुरश्चरण) करने लगा। अभिचार पूर्ण होते ही यज्ञकुण्ड से अति भीषण अग्नि मुर्तिमान् होकर प्रकट हुआ। उसके केश और दाढ़ी-मूँछें तपे हुए ताँबे के समान लाल-लाल थे। आँखों से अंगारे बरस रहे थे। उग्र दाढ़ों और टेढ़ी भृकुटियों के कारण उसके मुख से क्रूरता टपक रही थी। वह अपनी जीभ से मुँह के दोनों कोने चाट रहा था। शरीर नंग-धड़ंग था। हाथों में त्रिशूल लिये हुए था, जिसे वह बार-बार घुमाता जाता था और उसमें से अग्नि की लपटें निकल रही थीं। ताड़ के पेड़ के समान बड़ी-बड़ी टाँगे थीं। वह अपने वेग से धरती को काँपाता हुआ और ज्वालाओं से दसों दिशाओं को दग्ध करता हुआ द्वारका की ओर दौड़ा और बात-की-बात में द्वारका के पास जा पहुँचा। उसके साथ बहुत-से भूत भी थे। उस अभिचार की आग को बिलकुल पास आयी हुई देख द्वारकावासी वैसे ही डर गये, जैसे जंगल में आग लगने पर हरिन डर जाते हैं। वे लोग भयभीत होकर भगवान के पास दौड़ते हुए आये; भगवान उस समय सभा में चौसर खेल रहे थे, उन लोगों ने भगवान से प्रार्थना की- ‘तीनों लोकों के एकमात्र स्वामी! द्वारका नगरी इस आग से भस्म होना चाहती है। आप हमारी रक्षा कीजिये। आपके सिवा इसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता’। शरणागतवत्सल भगवान ने देखा कि हमारे स्वजन भयभीत हो गये हैं और और पुकार-पुकारकर विकलता भरे स्वर से हमारी प्रार्थना कर रहे हैं; तब उन्होंने हँसकर कहा- ‘डरो मत, मैं तुम लोगों की रक्षा करूँगा’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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