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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चौंसठवाँ अध्याय
जो मूर्ख राजा अपनी राजलक्ष्मी के घमंड से अंधे होकर ब्राह्मणों का धन हड़पना चाहते हैं, समझना चाहिये कि वे जान-बूझकर नरक में जाने का रास्ता साफ कर रहे हैं। वे देखते नहीं कि उन्हें अधःपतन के कैसे गहरे गड्ढे में गिरना पड़ेगा। जिन उदारहृदय और बहु-कुटुम्बी ब्राह्मणों की वृत्ति छीन ली जाती है, उनके रोने पर उनके आँसू की बूँदों से धरती के जितने धूलकण भीगते हैं, उतने वर्षों तक ब्राह्मण के स्वत्व को छिनने वाले उस उच्छ्रंखल राजा और उसके वंशजों को कुम्भीपाक नरक में दुःख भोगना पड़ता है। जो मनुष्य अपनी या दूसरों की दी हुई ब्राह्मणों की वृत्ति, उनकी जीविका के साधन छीन लेते हैं, वे साठ हजार वर्ष तक विष्ठा के कीड़े होते हैं। इसलिये मैं तो यही चाहता हूँ कि ब्राह्मणों का धन कभी भूल से भी मेरे कोष में न आये, क्योंकि जो लोग ब्राह्मणों के धन की इच्छा भी करते हैं, उसे छिनने की बात तो अलग रही- वे इस जन्म में अल्पायु, शत्रुओं से पराजित और राज्यभ्रष्ट हो जाते हैं और मृत्यु के बाद भी दूसरों को कष्ट देने वाले साँप ही होते हैं। इसलिये मेरे आत्मीयो! यदि ब्राह्मण अपराध करे, तो भी उससे द्वेष मत करो। वह मार ही क्यों न बैठे या बहुत-सी गालियाँ या शाप ही क्यों न दे, उसे तुम लोग सदा नमस्कार ही करो। जिस प्रकार मैं बड़ी सावधानी से तीनों समय ब्राह्मणों को प्रणाम करता हूँ, वैसे ही तुम लोग भी किया करो। जो मेरी इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा, उसे मैं क्षमा नहीं करूँगा, दण्ड दूँगा। यदि ब्राह्मण के धन का अपहरण हो जाये तो वह अपहृत धन उस अपहरण करने वाले को-अनजान में उसके द्वारा यह अपराध हुआ हो तो भी-अधःपतन के गड्ढे में डाल देता है। जैसे ब्राह्मण की गाय ने अनजान में उसे लेने वाले राजा नृग को नरक में डाल दिया था। परीक्षित! समस्त लोकों को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण द्वारकावासियों को इस प्रकार उपदेश देकर अपने महल में चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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