प्रेम सुधा सागर पृ. 435

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चौंसठवाँ अध्याय

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देवताओं के भी आराध्यदेव! पुरुषोत्तम गोविन्द! आप ही व्यक्त और अव्यक्त जगत् तथा जीवों के स्वामी हैं। अविनाशी अच्युत! आपकी कीर्ति पवित्र है। अन्तर्यामी नारायण! आप ही समस्त वृत्तियों और इन्द्रियों के स्वामी हैं। प्रभो! श्रीकृष्ण! मैं अब देवताओं के लोक में जा रहा हूँ। आप मुझे आज्ञा दीजिये। आप ऐसी कृपा कीजिये कि मैं चाहे कहीं-कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरा चित्त सदा आपके चरणकमलों में ही लगा रहे। आप समस्त कार्यों और कारणों के रूप में विद्यमान हैं। आपकी शक्ति अनन्त हैं और आप स्वयं ब्रह्म हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी वासुदेव श्रीकृष्ण! आप समस्त योगों के स्वामी योगेश्वर हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।

राजा नृग ने इस प्रकार कहकर भगवान की परिक्रमा की और अपने मुकुट से उनके चरणों का स्पर्श करके प्रणाम किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर सबके देखते-देखते ही वे श्रेष्ठ विमान पर सवार हो गये।

राजा नृग के चले जाने पर ब्राह्मणों के परम प्रेमी, धर्म के आधार देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने क्षत्रियों को शिक्षा देने के लिये वहाँ उपस्थित अपने कुटुम्ब के लोगों से कहा- ‘जो लोग अग्नि के समान तेजस्वी हैं, वे भी ब्राह्मणों का थोड़े-से-थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते। फिर जो अभिमानवश झूठ-मूठ अपने को लोगों का स्वामी समझते हैं, वे राजा तो क्या पचा सकते हैं? मैं हलाहल विष को विष नहीं मानता, क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है। वस्तुतः ब्राह्मणों का धन ही परम विष है, उसको पचा लेने के लिये पृथ्वी में कोई औषध, कोई उपाय नहीं है। हलाहल विष केवल खाने वाले का ही प्राण लेता है और आग भी जल के द्वारा बुझायी जा सकती है; परन्तु ब्राह्मण के धन रूप अरणि से जो आग पैदा होती है, वह सारे कुल को समूल जला डालती है। ब्राह्मण का धन यदि उसकी पूरी-पूरी सम्मति लिये बिना भोगा जाये, तब तो वह भोगने वाले, उसके लड़के और पौत्र- इन तीन पीढ़ियों को ही चौपट करता है। परन्तु यदि बलपूर्वक हठ करके उसका उपभोग किया जाये, तब तो पूर्वपुरुषों की दस पिढ़ियाँ और आगे की भी दस पीढ़ियाँ नष्ट हो जाती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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