प्रेम सुधा सागर पृ. 407

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
साठवाँ अध्याय

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भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- राजकुमारी! बड़े-बड़े नरपति, जिनके पास लोकपालों के समान ऐश्वर्य और सम्पत्ति है, जो बड़े महानुभाव और श्रीमान् हैं तथा सुन्दरता, उदारता और बल में भी बहुत आगे बढ़े हुए हैं, तुमसे विवाह करना चाहते थे। तुम्हारे पिता और भाई भी उन्हीं के साथ तुम्हारा विवाह करना चाहते थे, यहाँ तक कि उन्होंने वाग्दान भी कर दिया था। शिशुपाल आदि बड़े-बड़े वीरों को, जो कामोन्मत्त होकर तुम्हारे याचक बन रहे थे, तुमने छोड़ दिया और मेरे-जैसे व्यक्ति को, जो किसी प्रकार तुम्हारे समान नहीं है, अपना पति स्वीकार किया। ऐसा तुमने क्यों किया ?

सुन्दरी! देखो, हम जरासन्ध आदि राजाओं से डरकर समुद्र की शरण में आ बसे हैं। बड़े-बड़े बलवानों से हमने वैर बाँध रखा है और प्रायः राजसिंहासन के अधिकार से भी वंचित ही हैं। सुन्दर! हम किस मार्ग के अनुयायी हैं, हमारा कौन-सा मार्ग है, यह भी लोगों को अच्छी तरह मालूम नहीं है। हम लोग लौकिक व्यवहार का भी ठीक-ठाक पालन नहीं करते, अनुनय-विनय के द्वारा स्त्रियों को रिझाते भी नहीं। जो स्त्रियाँ हमारे-जैसे पुरुषों का अनुसरण करती हैं, उन्हें प्रायः क्लेश-ही-क्लेश भोगना पड़ता है। सुन्दरी! हम तो सदा के अकिंचन हैं। न तो हमारे पास कभी कुछ था और न रहेगा। ऐसे ही अकिंचन लोगों से हम प्रेम भी करते हैं और वे लोग भी हमसे प्रेम करते हैं। यही कारण है कि अपने को धनी समझने वाले लोग प्रायः हमसे प्रेम नहीं करते, हमारी सेवा नहीं करते। जिनका धन, कुल, ऐश्वर्य, सौन्दर्य और आय अपने समान होती है—उन्हीं से विवाह और मित्रता का सम्बन्ध करना चाहिये। जो अपने से श्रेष्ठ या अधम हों, उनसे नहीं करना चाहिये। विदर्भराजकुमारी! तुमने अपनी अदूरदर्शिता के कारण इन बातों का विचार नहीं किया और बिना जाने-बूझे भिक्षुकों से मेरी झूठ प्रशंसा सुनकर मुझ गुणहीन को वरण कर लिया। अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम अपने अनुरूप किसी श्रेष्ठ क्षत्रिय को वरण कर लो। जिसके द्वारा तुम्हारी इहलोक और परलोक की सारी आशा-अभिलाषाएँ पूरी हो सकें। सुन्दरी! तुम जानती ही हो कि शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र आदि नरपति और तुम्हारा बड़ा भाई रुक्मी—सभी मुझसे द्वेष करते थे। कल्याणी! वे सब बल-पौरुष के मद से अंधे हो रहे थे, अपने सामने किसी को कुछ नहीं गिनते थे। उन दुष्टों का मान मर्दन करने के लिए ही मैंने तुम्हारा हरण किया था और कोई कारण नहीं था। निश्चय ही हम उदासीन हैं। हम स्त्री, सन्तान और धन के लोलुप नहीं हैं। निष्क्रिय और देह-गेह से सम्बन्धरहित दीपशिखा के समान साक्षीमात्र हैं। हम अपने आत्मा के साक्षात्कार से ही पूर्णकाम हैं, कृतकृत्य हैं ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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