प्रेम सुधा सागर पृ. 408

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
साठवाँ अध्याय

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श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण के क्षणभर के लिये अलग न होने कारण रुक्मिणी जी को यह अभिमान हो गया था कि मैं इनकी सबसे अधिक प्यारी हूँ। इसी गर्व की शान्ति के लिये इतना कहकर भगवान चुप हो गये। परीक्षित्! जब रुक्मिणीजी ने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान की यह अप्रिय वाणी सुनी—जो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गयीं; उनका हृदय धड़कने लगा, वे रोते-रोते चिन्ता के अगाध समुद्र में डूबने-उतराने लगीं। वे अपने कमल के समान कोमल और नखों की लालिमा से कुछ-कुछ लाल प्रतीत होने वाले चरणों से धरती कुरेदने लगीं। अंजन से मिले हुए काले-काले आँसू केशर से रँगे हुए वक्षःस्थल को धोने लगे। मुँह नीचे को लटक गया। अत्यन्त दुःख के कारण उनकी वाणी रुक गयी और वे ठिठकी-सी रह गयीं। अत्यन्त व्यथा, भय और शोक के कारण विचारशक्ति लुप्त हो गयी, वियोग की सम्भावना से वे तक्षण इतनी दुबली हो गयीं कि उनकी कलाई का कंगन तक खिसक गया। हाथ का चँवर गिर पड़ा, बुद्धि की विकलता के कारण वे एकाएक अचेत हो गयीं, केश बिखर गये और वे वायुवेग से उखड़े हुए केले के खंभे की तरह धरती पर गिर पड़ी।

भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणीजी हास्य-विनोद की गम्भीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेम-पाश की दृढ़ता के कारण उनकी यह दशा हो रही है। स्वभाव से ही परम कारुणिक भगवान श्रीकृष्ण का हृदय उनके प्रति करुणा से भर गया। चार भुजाओं वाले वे भगवान उसी समय पलँग से उतर पड़े और रुक्मिणीजी को उठा लिया तथा उनके खुले हुए केशपाशों को बाँधकर अपने शीतल करकमलों से उनका मुँह पोंछ दिया। भगवान ने उनके नेत्रों के आँसू और शोक के आँसूओं से भीगे हुए स्तनों को पोंछकर अपने प्रति अनन्य प्रेमभाव रखने वाली उन सती रुक्मिणीजी को बाँहों में भरकर छाती से लगा लिया। भगवान श्रीकृष्ण समझाने-बुझाने में बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तों के एकमात्र आश्रय हैं। जब उन्होंने देखा कि हास्य की गम्भीरता के कारण रुक्मिणीजी की बुद्धि चक्कर में पड़ गयी और वे अत्यन्त दीन हो रही हैं, तब उन्होंने इस अवस्था के अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणीजी को समझाया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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