प्रेम सुधा सागर पृ. 358

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
इक्यावनवाँ अध्याय

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मुझे यह करना चाहिये और यह नहीं करना चाहिये, इस प्रकार विविध कर्तव्य और अकर्तव्यों की चिन्ता में पड़कर मनुष्य अपने एकमात्र कर्तव्य भगवत्प्राप्ति से विमुख होकर प्रमत्त हो जाता है, असावधान हो जाता है। संसार में बाँध रखने वाले विषयों के लिये उनकी लालसा दिन दूनी रात चौगिनी बढती ही जाती है। परन्तु जैसे भूख के कारण जीभ लपलपाता हुआ साँप असावधान चूहे को दबोच लेता है, वैसे ही कालरूप से सदा-सर्वदा सावधान रहने वाले आप एकाएक उस प्रसादग्रस्त प्राणी पर टूट पड़ते हैं और उसे ले बीतते हैं। जो पहले सोने के रथों पर अथवा बड़े-बड़े गजराजों पर चढ़कर चलता था और नरदेव कहलाता था, वही शरीर आपके अबाध काल ग्रास बनकर बाहर फेंक देने पर पक्षियों की विष्ठा, धरती में गाड़ देने पर सड़कर कीड़ा और आग में जला देने पर राख का ढेर बन जाता है। प्रभो! जिसने सारी दिशाओं पर विजय प्राप्त कर ली है और जिससे लड़ने वाला संसार में कोई रह नहीं गया है, जो श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठता है और बड़े-बड़े नरपति, जो पहले उसके समान थे, अब जिसके चरणों में सिर झुकाते हैं, वही पुरुष जब विषय-सुख भोगने के लिए, जो घर-गृहस्थी की एक विशेष वस्तु है, स्त्रियों के पास जाता है, तब उनके हाथ का खिलौना, उनका पालतू पशु बन जाता है।

बहुत-से लोग विषय-भोग छोड़कर पुनः राज्यादि भोग मिलने की इच्छा से दान-पुण्य करते हैं और ‘मैं फिर जन्म लेकर सबसे बड़ा परम स्वतन्त्र सम्राट् होऊँ।’ ऐसी कामना रखकर तपस्या में भलीभाँति स्थित हो शुभ कर्म करते हैं। इस प्रकार जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है, वह कदापि सुखी नहीं नहीं हो सकता। अपने स्वरूप में एकरस स्थित रहने वाले भगवन्! जीव अनादिकाल से जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर में भटक रहा है। जब उस चक्कर से छूटने का समय आता है, तब उसे सत्संग प्राप्त होता है। यह निश्चय है कि जिस क्षण सत्संग प्राप्त होता है, उसी क्षण संतों के आश्रय, कार्य-कारणरूप जगत् के एकमात्र स्वामी आप में जीव की बुद्धि अत्यन्त दृढ़ता से लग जाती है। भगवन्! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आपने मेरे ऊपर परम अनुग्रह की वर्षा की, क्योंकि बिना किसी परिश्रम के—अनायास ही मेरे राज्य का बन्धन टूट गया। साधु-स्वभाव के चक्र्वर्त्री राजा भी अब अपना राज्य छोड़कर एकान्त में भजन-साधन करने के उद्देश्य से वन में जाना चाहते हैं, तब उसके ममता-बन्धन से मुक्त होने के लिये बड़े प्रेम से आपसे प्रार्थन किया करते हैं। अन्तर्यामी प्रभो! आपसे क्या छिपा है ? मैं आपके चरणों की सेवा के अतिरिक्त और कोई भी वर नहीं चाहता; क्योंकि जिनके पास किसी प्रकार का संग्रह-परग्रह नहीं है अथवा जो उसके अभिमान से रहित हैं, वे लोग भी केवल उसी के लिये प्रार्थना करते हैं। भगवन्! भला, बतलाइये तो सही—मोक्ष देने वाले आपकी आराधना करके ऐसा कौन सा श्रेष्ठ पुरुष होगा, जो अपने को बाँधनेवाले सांसारिक विषयों का वर माँगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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