प्रेम सुधा सागर पृ. 357

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
इक्यावनवाँ अध्याय

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राजन! यह कालयवन था, जो मेरी ही प्रेरणा से तुम्हारी तीक्ष्ण दृष्टि पड़ते ही भस्म हो गया। वहीं मैं तुम पर कृपा करने के लिये ही इस गुफा में आया हूँ। तुमने पहले मेरी बहुत आराधना की है और मैं हूँ भक्तवत्सल। इसलिये राजर्षे! तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं तुम्हारी सारी लालसा, अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूँगा। जो पुरुष मेरी शरण में आ जाता है उसके लिये फिर ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसके लिये वह शोक करे।

श्री शुकदेव जी कहते हैं - जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा, तब राजा मुचुकुन्द को वृद्ध गर्ग का यह कथन याद आ गया कि यदुवंश में भगवान अवतीर्ण होने वाले हैं। वे जान गये कि ये स्वयं भगवान नारायण हैं। आनन्द से भरकर उन्होंने भगवान के चरणों में प्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की।

मुचुकुन्द ने कहा—‘प्रभो! जगत् के सभी प्राणी आपकी माया से अत्यन्त मोहित हो रहे हैं। वे आपसे विमुख होकर अनर्थ में ही फँसे रहते हैं और आपका भजन नहीं करते। वे सुख के लिये घर-गृहस्थी के उन झंझटों में फँस जाते हैं, जो सारे दुःखों के मूल स्त्रोत हैं। इस तरह स्त्री और पुरुष सभी ठगे जा रहे हैं। इस पापरूप संसार से सर्वथा रहित प्रभो! यह भूमि अत्यन्त पवित्र कर्मभूमि है, इसमें मनुष्य का जन्म होना अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य-जीवन इतना पूर्ण है कि उसमें भजन के लिए कोई भी असुविधा नहीं है। अपने परम सौभाग्य और भगवान की अहैतुक कृपा से उसे अनायास ही प्राप्त करके भी जो अपनी मति, गति असत् संसार में ही लगा देते हैं और तुच्छ विषय सुख के लिये ही सारा प्रयत्न करते हुए घर-गृहस्थी के अँधेरे कूएँ में पड़े रहते हैं— भगवान के चरणकमलों की उपासना नहीं करते, भजन नहीं करते, वे तो ठीक उस पशु के समान हैं, जो तुच्छ तृण के लोभ से अँधेरे कूएँ में गिर जाता है। भगवन्! मैं राजा था, राज्यलक्ष्मी के मद से मैं मतवाला हो रहा था। इस मरने वाले शरीर को ही तो मैं आत्मा-अपना स्वरूप समझ रहा था और राजकुमार, रानी, खजाना तथा पृथ्वी के लोभ-मोह में ही फँसा हुआ था। उन वस्तुओं की चिन्ता दिन-रात मेरे गले लगी रहती थी। इस प्रकार मेरे जीवन का यह अमूल्य समय बिलकुल निष्फल—व्यर्थ चला गया। जो शरीर प्रत्यक्ष ही घड़े और भीत के समान मिट्टी का है और दृश्य होने के कारण उन्हीं के समान अपने से अलग भी है, उसी को मैंने अपना स्वरूप मान लिया था और फिर अपने को मान बैठा था ‘नरदेव’! इस प्रकार मैंने मदान्ध होकर आपको तो कुछ समझा ही नहीं। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल की चतुरंगिणी सेना तथा सेनापतियों से घिरकर मैं पृथ्वी में इधर-उधर घूमता रहता ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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