प्रेम सुधा सागर पृ. 328

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
सैंतालीसवाँ अध्याय

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कल्याणियों! जिस समय मैंने वृन्दावन में शारदीय पूर्णिमा की रात्रि में रास-क्रीड़ा की थी उस समय जो गोपियाँ स्वजनों के रोक लेने से व्रज में ही रह गयीं - मेरे साथ रास-विहार में सम्मिलित न हो सकीं, वे मेरी लीलाओं का स्मरण करने से ही मुझे प्राप्त हो गयी थीं। (तुम्हें भी मैं मिलूँगा अवश्य, निराश होने की कोई बात नहीं है)। श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! अपने प्रियतम श्रीकृष्ण का संदेशा सुनकर गोपियों को बड़ा आनन्द हुआ उनके सन्देश से उन्हें श्रीकृष्ण के स्वरूप और एक-एक लीला की याद आने लगी।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है - मैं सबका उपादान कारण होने से सबकी आत्मा हूँ, सबमें अनुगत हूँ; इसलिये मुझसे कभी भी तुम्हारा वियोग नहीं हो सकता। जैसे संसार के सभी भौतिक पदार्थों में आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी - ये पाँचो भूत व्याप्त हैं, इन्हीं से सब वस्तुएँ बनी हैं, और यही उन वस्तुओं के रूप में हैं। वैसे ही मैं मन, प्राण, पंचभूत, इन्द्रिय और उनके विषयों का आश्रय हूँ। वे मुझमें हैं, मैं उनमें हूँ और सच पूछो तो मैं ही उनके रूप में प्रकट हो रहा हूँ।

मैं ही अपनी माया के द्वारा भूत, इन्द्रिय और उनके विषयों के रूप में होकर उनका आश्रय बन जाता हूँ तथा स्वयं निमित्त भी बनकर अपने-आपको ही रचता हूँ, पालता हूँ और समेत लेता हूँ। आत्मा माया और माया के कार्यों से पृथक है। वह विशुद्ध ज्ञानस्वरूप, जड़ प्रकृति, अनेक जीव तथा अपने ही अवांतर भेदों से रही सर्वथा शुद्ध है। कोई भी गुण उसका स्पर्श नहीं कर पाते। माया की तीन वृत्तियाँ हैं - सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत। इनके द्वारा वही अखण्ड, अनन्त बोधस्वरूप आत्मा कभी प्राज्ञ, तो कभी तैजस और कभी विश्वरूप से प्रतीत होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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