प्रेम सुधा सागर पृ. 329

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
सैंतालीसवाँ अध्याय

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मनुष्य को चाहिये कि वह समझे कि स्वप्न में दीखने वाले पदार्थों के समान ही जाग्रत-अवस्था में इन्द्रियों के विषय भी प्रतीत हो रहे हैं, वे मिथ्या हैं। इसलिये उन विषयों का चिन्तन करने वाले मन और इन्द्रियों को रोक ले और मानो सोकर उठा हो, इस प्रकार जगत के स्वाप्निक विषयों को त्यागकर मेरा साक्षात्कार करे। जिस प्रकार सभी नदियाँ घूम-फिरकर समुद्र में ही पहुँचती हैं, उसी प्रकार मनस्वी पुरुषों का वेदाभ्यास, योग-साधन, आत्मानात्म-विवेक, त्याग, तपस्या, इन्द्रियसंयम और सत्य आदि समस्त धर्म, मेरी प्राप्ति में ही समाप्त होते हैं। सबका सच्चा फल है मेरा साक्षात्कार; क्योंकि वे सब मन को निरुद्ध करके मेरे पास पहुँचाते हैं।

गोपियों! इसमें सन्देह नहीं कि मैं तुम्हारे नयनों का ध्रुवतारा हूँ। तुम्हारा जीवन-सर्वस्व हूँ। किन्तु मैं जो तुमसे इतना दूर रहता हूँ, उसका कारण है। वह यही कि तुम निरन्तर मेरा ध्यान कर सको, शरीर से दूर रहने पर भी मन से तुम मेरी सन्निधि का अनुभव करो, अपना मन मेरे पास रखो। क्योंकि स्त्रियों और अन्यान्य प्रेमियों का चित्त अपने परदेशी प्रियतम में जितना निश्चल भाव से लगा रहता है, उतना आँखों के सामने, पास रहने वाले प्रियतम में नहीं लगता। अशेष वृत्तियों से रहित सम्पूर्ण मन मुझमें लगाकर जब तुम लोग मेरा अनुस्मरण करोगी, तब शीघ्र ही सदा के लिये मुझे प्राप्त हो जाओगी।

कल्याणियों! जिस समय मैंने वृन्दावन में शारदीय पूर्णिमा की रात्रि में रास-क्रीड़ा की थी उस समय जो गोपियाँ स्वजनों के रोक लेने से व्रज में ही रह गयीं - मेरे साथ रास-विहार में सम्मिलित न हो सकीं, वे मेरी लीलाओं का स्मरण करने से ही मुझे प्राप्त हो गयी थीं। (तुम्हें भी मैं मिलूँगा अवश्य, निराश होने की कोई बात नहीं है)। श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! अपने प्रियतम श्रीकृष्ण का संदेशा सुनकर गोपियों को बड़ा आनन्द हुआ उनके सन्देश से उन्हें श्रीकृष्ण के स्वरूप और एक-एक लीला की याद आने लगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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