प्रेम सुधा सागर पृ. 326

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
सैंतालीसवाँ अध्याय

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उद्धव जी ने कहा - अहो गोपियों! तुम कृतकृत्य हो। तुम्हारा जीवन सफल है। देवियों! तुम सारे संसार के लिये पूजनीय हो; क्योंकि तुम लोगों ने इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण को अपना हृदय, अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है। दान, व्रत, तप, होम, जप, वेदाध्ययन, ध्यान, धारणा, समाधि और कल्याण के अन्य विविध साधनों के द्वारा भगवान की भक्ति प्राप्त हो, यही प्रयत्न किया जाता है।

यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम लोगों ने पवित्र कीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के प्रति वही सर्वोत्तम प्रेमभक्ति प्राप्त की है और उसी का आदर्श स्थापित किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है। सचमुच यह कितने सौभाग्य की बात है कि तुमने अपने पुत्र, पति, देह, स्वजन और घरों को छोड़कर पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण को, जो सबके परम पति हैं, पति के रूप में वरण किया है।

महाभाग्यवती गोपियों! भगवान श्रीकृष्ण के वियोग से तुमने उन इन्द्रियातीत परमात्मा के प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है, जो सभी वस्तुओं के रूप में उनका दर्शन कराता है। तुम लोगों का वह भाव मेरे सामने भी प्रकट हुआ, यह मेरे ऊपर तुम देवियों की बड़ी ही दया है। मैं अपने स्वामी का गुप्त काम करने वाला दूत हूँ। तुम्हारे प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण ने तुम लोगों को परम सुख देने के लिये यह प्रिय सन्देश भेजा है। कल्याणियों! वही लेकर मैं तुम लोगों के पास आया हूँ, अब उसे सुनो।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है - मैं सबका उपादान कारण होने से सबकी आत्मा हूँ, सबमें अनुगत हूँ; इसलिये मुझसे कभी भी तुम्हारा वियोग नहीं हो सकता। जैसे संसार के सभी भौतिक पदार्थों में आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी - ये पाँचो भूत व्याप्त हैं, इन्हीं से सब वस्तुएँ बनी हैं, और यही उन वस्तुओं के रूप में हैं। वैसे ही मैं मन, प्राण, पंचभूत, इन्द्रिय और उनके विषयों का आश्रय हूँ। वे मुझमें हैं, मैं उनमें हूँ और सच पूछो तो मैं ही उनके रूप में प्रकट हो रहा हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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