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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
सैंतालीसवाँ अध्याय
हमारे प्रियतम के प्यारे सखा! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो। अवश्य ही हमारे प्रियतम ने मनाने के लिये तुम्हें भेजा होगा। प्रिय भ्रमर! तूम सब प्रकार से हमारे माननीय हो। कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ? हमसे जो चाहो सो माँग लो। अच्छा, तुम सच बताओ, क्या हमें वहाँ ले चलना चाहते हो? अजी, उनके पास जाकर लौटना बड़ा कठिन है। हम तो उनके पास जा चुकी हैं। परन्तु तुम हमें वहाँ ले जाकर करोगे क्या? प्यारे भ्रमर! उनके साथ - उनके वक्षःस्थल पर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मी जी सदा रहती हैं न? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा। अच्छा, हमारे प्रियतम के प्यारे दूत मधुकर! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र भगवान श्रीकृष्ण गुरुकुल से लौटकर मधुपुरी में अब सुख से तो हैं न? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदा रानी, यहाँ के घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालों की भी याद करते हैं? और क्या हम दासियों की भी कोई बात कभी चलाते हैं? प्यारे भ्रमर! हमें यह भी बतलाओ कि कभी वे अपनी अगर के समय दिव्य सुगन्ध से युक्त भुजा हमारे सिरों पर रखेंगे? क्या हमारे जीवन में कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा? श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अत्यन्त उत्सुक -लालायित हो रही थीं, उनके लिये तड़प रही थीं। उनकी बातें सुनकर उद्धव जी ने उन्हें उनके प्रियतम का सन्देश सुनाकर सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा - |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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