प्रेम सुधा सागर पृ. 299

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चौवालीसवाँ अध्याय

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जितने लोग यहाँ इकट्ठे हुए हैं, देख रहे हैं, उन्हें अवश्य धर्मोल्लंघन का पाप लगेगा। सखी! अब हमें भी यहाँ से चल देना चाहिये। जहाँ अधर्म की प्रधानता हो, वहाँ कभी न रहें; यही शास्त्र का नियम है। देखो, शास्त्र कहता है कि बुद्धिमान पुरुष को सभासदों के दोषों को जानते हुए सभा में जाना ठीक नहीं है। क्योंकि वहाँ जाकर उन अवगुणों को कहना, चुप रह जाना अथवा मैं नहीं जानता ऐसा कह देना - ये तीनों ही बातें मनुष्य को दोषभागी बनाती हैं। देखो, देखो, श्रीकृष्ण शत्रु के चारों ओर पैंतरा बदल रहे हैं। उनके मुख पर पसीने की बूँदें ठीक वैसे ही शोभा दे रही हैं, जैसे कमल-कोशल पर जल की बूँदें। सखियों! क्या तुम नहीं देख रही हो कि बलराम जी का मुख मुष्टिक के प्रति क्रोध के कारण कुछ-कुछ लाल लोचनों से युक्त हो रहा है! फिर भी हास्य का अनिरुद्ध आवेग कितना सुन्दर लग रहा है।

सखी! सच पूछो तो व्रजभूमि ही परम पवित्र और धन्य है। क्योंकि वहाँ ये पुरुषोत्तम मनुष्य के वेश में छिपकर रहते हैं। स्वयं भगवान शंकर और लक्ष्मी जी जिनके चरणों की पूजा करती हैं, वे ही प्रभु वहाँ रंग-बिरंगे जंगली पुष्पों की माला धारण कर लेते हैं तथा बलरामजी के साथ बाँसुरी बजाते, गौएँ चराते और तरह-तरह खेल खेलते हुए आनन्द से विचरते हैं।

सखी! पता नहीं, गोपियों ने कौन-सी तपस्या की थी, जो नेत्रों के दोनों से नित्य-निरन्तर इनकी रूप-माधुरी का पान करती रहती हैं। इनका रूप क्या है, लावण्य का सार! संसार में या उससे परे किसी का भी रूप इनके रूप के समान नहीं है, फिर बढ़कर होने की तो बात ही क्या है! सो भी किसी के सँवारने-सजाने से नहीं, गहने-कपड़े से भी नहीं, बल्कि स्वयंसिद्ध है। इस रूप को देखते-देखते तृप्ति भी नहीं होती। क्योंकि यह प्रतिक्षण नया होता जाता है, नित्य नूतन है। समग्र यश, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इसी के आश्रित हैं। सखियों! परन्तु इसका दर्शन तो औरों के लिये बड़ा ही दुर्लभ है। वह तो गोपियों के ही भाग्य में बदा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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