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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
उनतालीसवाँ अध्याय
नन्द-सुनन्द आदि पार्षद अपने ‘स्वामी’, सनकादि परमर्षि ‘परब्रह्म’, ब्रह्मा, महादेव आदि देवता ‘सर्वेश्वर’, मरीचि आदि नौ ब्राह्मण ‘प्रजापति’ और प्रह्लाद-नारद आदि भगवान के परम प्रेमी भक्त तथा आठों वसु अपने अनुसार निर्दोष वेदवाणी से भगवान की स्तुति कर रहे हैं। साथ ही लक्ष्मी, पुष्टि, सरस्वती, कान्ति, कीर्ति और तुष्टि[1], इला[2], ऊर्जा[3], विद्या-अविद्या (जीवों के मोक्ष और बन्धन में कारणरूपा बहिरंग शक्ति), ह्लादिनी, संवित [4] और माया आदि शक्तियाँ मूर्तिमान होकर उनकी सेवा कर रही हैं। भगवान की यह झाँकी निरखकर अक्रूर जी का हृदय परमानन्द से लबालब भर गया। उन्हें परम शक्ति प्राप्त हो गयी। सारा शरीर हर्षावेश से पुलकित हो गया। प्रेमभाव का उद्रेक होने से उनके नेत्र आँसू से भर गये। अब अक्रूर जी ने अपना साहस बटोकर भगवान के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे गद्गद स्वर से भगवान की स्तुति करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्थात् ऐश्वर्य, बल, ज्ञान, श्री, यश और वैराग्य - ये षडैश्वर्यरूप शक्तियाँ
- ↑ सन्धिनीरूप पृथ्वी-शक्ति
- ↑ लीलाशक्ति
- ↑ अन्तरंगा शक्ति
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