प्रेम सुधा सागर पृ. 246

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
सैंतीसवाँ अध्याय

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केशी और व्योमासुर का उद्धार तथा नारद जी के द्वारा भगवान की स्तुति

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! कंस ने जिस केशी नामक दैत्य को भेजा था, वह बड़े भारी घोड़े के रूप में मन के समान वेग से दौड़ता हुआ व्रज में आया। वह अपनी टापों से धरती को खड़ता आ रहा था! उसकी गरदन के छितराये हुए बालों के झटके से आकाश के बादल और विमानों की भीड़ तितर-बितर हो रही थी। उसकी भयानक हिनहिनाहट से सब-के-सब भय से काँप रहे थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें थीं, मुँह क्या था, मानो किसी वृक्ष का खोड़र ही हो। उसे देखने से ही डर लगता था। बड़ी मोटी गरदन थी। शरीर इतना विशाल था कि मालूम होता था काली-काली बादल की घटा है। उसकी नीयत में पाप भरा था।

वह श्रीकृष्ण को मारकर अपने स्वामी कंस का हित करना चाहता था। उसके चलने से भूकम्प होने लगता था। भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से उनके आश्रित रहने वाला गोकुल भयभीत हो रहा है और उसकी पूँछ के बालों से बादल तितर-बितर हो रहे हैं, तथा वह लड़के के लिये उन्हीं को ढूँढ भी रहा है - तब वे बढ़कर उसके सामने आ गये और उन्होंने सिंह के समान गरजकर उसे ललकारा। भगवान को सामने आया देख वह और भी चिढ़ गया तथा उनकी ओर इस प्रकार मुँह फैलाकर दौड़ा, मानो आकाश को पी जायगा।

परीक्षित! सचमुच केशी का वेग बड़ा प्रचण्ड था। उस पर विजय पाना तो कठिन था ही, उसे पकड़ लेना भी आसान नहीं था। उसने भगवान के पास पहुँचकर दुलत्ती झाड़ी। परन्तु भगवान ने उससे अपने को बचा लिया। भला, वह इन्द्रियातीत को कैसे मार पाता! उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिये और जैसे गरुड़ साँप को पकड़ कर झटक देते हैं, उसी प्रकार क्रोध से उसे घुमाकर बड़े अपमान के साथ चार सौ हाथ की दूरी पर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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