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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वाविंश अध्याय
श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! भगवान की यह आज्ञा पाकर वे कुमारियाँ भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करतीं हुईं जाने की इच्छा न होने पर भी बड़े कष्ट से व्रज में गयीं। अब उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं। प्रिय परीक्षित! एक दिन भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी और ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये । ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्य की किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं। परन्तु घने-घने वृक्ष भगवान श्रीकृष्ण के ऊपर छत्ते का काम कर रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने वृक्षों को छाया करते देख स्तोककृष्ण, अंशु, श्रीदामा, सुबल, अर्जुनल, विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरुथप आदि ग्वालों को सम्बोधन करके कहा - ‘मेरे प्यारे मित्रों! देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं! इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिये ही है। ये स्वयं तो हवा के झोंके, वर्षा, धूप और पाला - सब कुछ सकते हैं, परन्तु हम लोगों की उनसे रक्षा करते हैं । मैं कहता हूँ कि इन्हीं का जीवन सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियों को सहारा मिलता है, उनका जीवन-निर्वाह होता है। जैसे किसी सज्जन पुरुष के घर से कोई याचक ख़ाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षों से भी सभी को कुछ-न-कुछ मिल ही जाता है। ये अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद, राख, कोयला, अंकुर और कोंपलों से भी लोगों की कामना पूर्ण करते हैं। मेरे प्यारे मित्रों! संसार में प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवन की सफलता इतने में ही है कि जहाँ तक हो सके अपने धन से, विवेक-विचार से, वाणी से और प्राणों से भी ऐसे ही कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरों की भलाई हो। परीक्षित! दोनों ओर से वृक्ष नयी-नयी कोंपलों, गुच्छों, फल-फूलों और पत्तों से लद रहे थे। उनकी डालियाँ पृथ्वी तक झुकी हुई थीं। इस प्रकार भाषण करते हुए भगवान श्रीकृष्ण उन्हीं के बीच से यमुना तट पर निकल आये। राजन! यमुना जी का जल बड़ा ही मधुर, शीतल और स्वच्छ था। उन लोगों ने पहले गौओं को पिलाया और इसके बाद स्वयं भी जी भरकर स्वादु जल का पान किया। परीक्षित! जिस समय यमुना जी के तट पर हरे-भरे उपवन में बड़ी स्वतन्त्रता से अपनी गौएँ चरा रहे थे, उसी समय कुछ भूखे ग्वालों ने भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी के पास आकर यह बात कही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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