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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
षोडश अध्याय
परीक्षित! मार्ग में गौओं और दूसरों के चरणचिह्नों के बीच-बीच में भगवान के चरणचिह्न भी दीख जाते थे। उनमें कमल, जौ, अंकुश, वज्र और ध्वजा के चिह्न बहुत ही स्पष्ट थे। उन्हें देखते हुए वे बहुत शीघ्रता से चले। उन्होंने दूर से ही देखा कि कालिय नाग के शरीर से बँधे हुए श्रीकृष्ण चेष्टाहीन हो रहे हैं। कुण्ड के किनारे पर ग्वालबाल अचेत हुए पड़े हैं और गौएँ, बैल, बछड़े आदि बड़े आर्तस्वर से डकरा रहे हैं। यह सब देखकर वे सब गोप अत्यन्त व्याकुल और अन्त में मूर्च्छित हो गये। गोपियों का मन अनन्त गुणगुणनिलय भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम के रंग में रँगा हुआ था। वे तो नित्य-निरन्तर भगवान के सौहार्द, उनकी मधुर मुसकान, प्रेमभरी चितवन तथा मीठी वाणी का ही स्मरण करती रहती थीं। जब उन्होंने देखा कि हमारे प्रियतम श्यामसुन्दर को काले साँप ने जकड़ रखा है, तब तो उनके हृदय में बड़ा ही दुःख और बड़ी ही जलन हुई। अपने प्राणवल्लभ जीवन सर्वस्व के बिना उन्हें तीनों लोक सूने दीखने लगे। माता यशोदा तो अपने लाड़ले लाल के पीछे कालियदह में कूदने ही जा रही थी; परन्तु गोपियों ने उन्हें पकड़ लिया। उनके हृदय में भी वैसी ही पीड़ा थी। उनकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखें श्रीकृष्ण के मुख कमल पर लगी थीं। जिनके शरीर में चेतना थी, वे ब्रजमोहन श्रीकृष्ण की पूतना-वध आदि की प्यारी-प्यारी ऐश्वर्य लीलाएँ कह-कह कर यशोदा जी को धीरज बँधाने लगीं। किन्तु अधिकांश तो मुर्दे की तरह पड़ ही गयी थीं। परीक्षित! नन्दबाबा आदि ने जीवन-प्राण तो श्रीकृष्ण ही थे। वे श्रीकृष्ण के लिये कालियदह में घुसने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण का प्रभाव जानने वाले भगवान बलराम जी ने किन्हीं को समझा-बुझाकर, किन्हीं को बलपूर्वक और किन्हीं को उनके हृदयों में प्रेरणा करके रोक दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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