प्रेम सुधा सागर पृ. 123

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
पंचदश अध्याय

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बलराम जी और श्रीकृष्ण के सखाओं में एक प्रधान गोप-बालक थे श्रीदामा। एक दिन उन्होंने तथा सुबल और स्तोक कृष्ण[1] आदि ग्वालबालों ने श्याम और राम से बड़े प्रेम के साथ कहा- ‘हमलोगों को सर्वदा सुख पहुँचाने वाले बलरामजी! आपके बाहुबल की तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण! दुष्टों को नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वाभाव ही है। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा भारी वन है। बस, उसमें पाँत-के-पाँत ताड़ के वृक्ष भरे पड़े हैं। वहाँ बहुत-से ताड़ के फल पक-पकाकर गिरते रहते हैं और बहुत-से पहले के गिरे हुए भी हैं। परन्तु वहाँ धेनुक नाम का एक दुष्ट दैत्य रहता है। उसने उन फलों पर रोक लगा रखी है।

बलराम जी और भैया श्रीकृष्ण! वह दैत्य गधे के रूप में रहता है। वह स्वयं तो बड़ा बलवान है ही, उसके साथी और भी बहुत-से उसी के समान बलवान दैत्य उसी रूप में रहते हैं। मेरे शत्रुघाती भैया! उस दैत्य ने अब तक न जाने कितने मनुष्य खा डाले हैं! यही कारण है कि उसके डर के मारे मनुष्य उसका सेवन नहीं करते और पशु-पक्षी भी उस जंगल में नहीं जाते। उसके फल हैं तो बड़े सुगन्धित, परन्तु हमने कभी नहीं खाये। देखो न, चारों ओर उन्हीं की मन्द-मन्द सुगन्ध फ़ैल रही है। तनिक-सा ध्यान देने से उसका रस मिलने लगता है। श्रीकृष्ण! उनकी सुगन्ध से हमारा मन मोहित हो गया है और उन्हें पाने के लिये मचल रहा है। तुम हमें वे फल अवश्य खिलाओ। दाऊ दादा! हमें उन फलों की बड़ी उत्कट अभिलाषा है। आपको रुचे तो वहाँ अवश्य चलिये।

अपने सखा ग्वालबालों की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों हँसे और फिर उन्हें प्रसन्न करने के लिये उनके साथ तालवन के लिये चल पड़े। उस वन में पहुँचकर बलराम जी ने अपनी बाँहों से उड़ ताड़ के पेड़ों को पकड़ लिया और मतवाले हाथी के बच्चे के समान उन्हें बड़े जोर से हिलाकर बहुत-से फल नीचे गिरा दिये। जब गधे के रूप में रहने वाले दैत्य ने फलों के गिरने का शब्द सुना, तब वह पर्वतों के साथ सारी पृथ्वी को कँपाता हुआ उनकी ओर दौड़ा। वह बड़ा बलवान था। उसने बड़े वेग से बलराम जी के सामने आकर अपने पिछले पैरों से उनकी छाती में दुलत्ती मारी और इसके बाद वह दुष्ट बड़े जोर से रेंकता हुआ वहाँ से हट गया। राजन! वह गधा क्रोध में भरकर फिर रेंकता हुआ दूसरी बार बलराम जी के पास पहुँचा और उनकी ओर पीठ करके फिर बड़े क्रोध में अपने पिछले पैरों की दुलत्ती चलायी। बलराम जी ने अपने एक ही हाथ से उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे आकाश में घुमाकर एक ताड़ के पेड़ पर दे मारा। घुमाते समय उस गधे के प्राण पखेरू उड़ गये थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. छोटे कृष्ण

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