प्रेम सुधा सागर पृ. 121

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
पंचदश अध्याय

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भाई जी! वास्तव में आप ही स्तुति करने योग्य हैं। देखिये, आपको अपने घर आया देख ये मोर आपके आपके दर्शनों से आनन्दित होकर नाच रहे हैं। हिरनियाँ मृगनयनी गोपियों के समान अपनी प्रेमभरी तिरछी चितवन से आपके प्रति प्रेम प्रकट कर रही हैं, आपको प्रसन्न कर रही हैं। ये कोयलें अपनी मधुर कुहू-कुहू ध्वनि से आपका कितना सुन्दर स्वागत कर रही हैं! वे वनवासी होने पर भी धन्य हैं। क्योंकि सत्पुरुषों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे घर आये अतिथि को अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु भेंट कर देते हैं। आज यहाँ की भूमि अपनी हरी-हरी घास के साथ आपके चरणों का स्पर्श प्राप्त करके धन्य हो रही है। यहाँ के वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ आपकी अँगुलियों का स्पर्श पाकर अपना अहोभाग्य मान रही हैं। आपकी दया भरी चितवन से नदी, पर्वत, पशु, पक्षी - सब कृतार्थ हो रहे हैं और ब्रज की गोपियाँ आपके वक्षःस्थल का स्पर्श प्राप्त करके, जिसके लिये स्वयं लक्ष्मी भी लालायित रहती हैं, धन्य-धन्य हो रही हैं।

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! इस प्रकार परम सुन्दर वृन्दावन को देखकर भगवान श्रीकृष्ण बहुत ही आनन्दित हुए। वे अपने सखा ग्वालबालों के साथ गोवर्धन की तराई में, यमुना तट पर गौओं को चराते हुए अनेकों प्रकार की लीलायें करने लगे। एक ओर ग्वालबाल भगवान श्रीकृष्ण के चरित्रों की मधुर तान छेड़े रहते हैं, तो दूसरी ओर बलराम जी के साथ वनमाला पहने हुए श्रीकृष्ण मतवाले भौंरों की सुरीली गुनगुनाहट में अपना स्वर मिलाकर मधुर संगीत अलापने लगते हैं।

कभी-कभी श्रीकृष्ण कूजते हुए राजहंसों के साथ स्वयं भी कूजने लगते हैं और कभी नाचते हुए मोरों के साथ स्वयं भी ठुमुक-ठुमुक नाचने लगते हैं और ऐसा नाचते हैं कि मयूर को उपहासास्पद बना देते हैं। कभी मेघ के समान गम्भीर वाणी से दूर गये हुए पशुओं को उनका नाम ले-लेकर बड़े प्रेम से पुकारते हैं। उनके कण्ठ की मधुर ध्वनि सुनकर गायों और ग्वालबालों का चित्त भी अपने वश में नहीं रहता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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