प्रेम सुधा सागर अध्याय 33 श्लोक 40 का विस्तृत संदर्भ/3

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
तैंतीसवाँ अध्याय

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भगवान का चिदानन्दघन शरीर दिव्य है। वह अजन्मा और अविनाशी है, हानोपादानरहित है। वह नित्य सनातन शुद्ध भगवत्स्वरूप ही है। इसी प्रकार गोपियाँ दिव्य जगत की भगवान की स्वरूपभूता अन्तरंग शक्तियाँ हैं। इन दोनों का सम्बन्ध भी दिव्य ही है। यह उच्चतम भाव राज्य की लीला स्थूल शरीर और स्थूल मन से परे है। आवरण-भंग के अनन्तर अर्थात चीरहरण करके जब भगवान स्वीकृति देते हैं, तब इसमें प्रवेश होता है।
प्राकृत देह का निर्माण होता है स्थूल, सूक्ष्म और कारण - इन तीन देहों के संयोग से। जब तक ‘कारण शरीर’ रहता है, तब तक इस प्राकृत देह से जीव को छुटकारा नहीं मिलता। ‘कारण शरीर’ कहते हैं पूर्वकृत कर्मों के उन संस्कारों को, जो देह-निर्माण में कारण होते हैं। इस ‘कारण शरीर’ के आधार पर जीव को बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ना होता है और यह चक्र जीव की मुक्ति न होने तक अथवा ‘कारण’ का सर्वथा अभाव न होने तक चलता ही रहता है। इसी कर्म बन्धन के कारण पांचभौतिक स्थूल शरीर मिलता है - जो रक्त, मांस, अस्थि आदि से भरा और चमड़े से ढका होता है। प्रकृति के राज्य में जितने शरीर होते हैं, सभी वस्तुतः योनि और बिन्दु के संयोग से ही बनते हैं; फिर चाहे कोई कामजनित निकृष्ट मैथुन से उत्पन्न हो या ऊर्ध्वरेता महापुरुष के संकल्प से, बिन्दु के अधोगामी होने पर कर्तव्य रूप श्रेष्ठ मैथुन से हो, अथवा बिना ही मैथुन के नाभि, हृदय, कण्ठ, कर्ण, नेत्र, सिर, मस्तक आदि के स्पर्श से, बिना ही स्पर्श के केवल दृष्टिमात्र से अथवा बिना देखे केवल संकल्प से ही उत्पन्न हो। ये मैथुनी-अमैथुनी अथवा कभी-कभी स्त्री या पुरुष-शरीर के बिना भी उत्पन्न होने वाले, सभी शरीर है योनि और बिन्दु के संयोगजनित ही। ये सभी प्राकृत शरीर हैं। इसी प्रकार योगियों के द्वारा निर्मित ‘निर्माणकाय’ यद्यपि अपेक्षाकृत शुद्ध हैं, परन्तु वे भी हैं प्राकृत ही। पितर या देवों के दिव्य कहलाने वाले शरीर भी प्राकृत ही हैं। अप्राकृत शरीर इन सबसे विलक्षण हैं, जो महाप्रलय में भी नष्ट नहीं होते। और भगवद् देह तो साक्षात भगवत्स्वरूप ही है। देव-शरीर प्रायः रक्त-मांस-मेद-अस्थि वाले नहीं होते। अप्राकृत शरीर भी नहीं होते। फिर भगवान श्रीकृष्ण का भगवत्स्वरूप शरीर तो रक्त-मांस-अस्थिमय होता ही कैसे। वह तो सर्वथा चिदानन्दनमय है। उसमें देह-देही, गुण-गुणी, रूप-रूपी, नाम-नामी और लीला तथा लीला पुरुषोत्तम का भेद नहीं है। श्रीकृष्ण का एक-एक अंग पूर्ण श्रीकृष्ण है। श्रीकृष्ण का मुखमण्डल जैसे पूर्ण श्रीकृष्ण है, वैसे ही श्रीकृष्ण का पदनख भी पूर्ण श्रीकृष्ण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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