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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
तैंतीसवाँ अध्याय
यह बात पहले ही समझ लेनी चाहिये कि भगवान का शरीर जीव-शरीर की भाँति जड़ नहीं होता। जड़ की सत्ता केवल जीव की दृष्टि में होती है, भगवान की दृष्टि में नहीं। यह देह है और यह देही है, इस प्रकार का भेदभाव केवल प्रकृति के राज्य में होता है। अप्राकृत लोक में - जहाँ की प्रकृति भी चिन्मय है - सब कुछ चिन्मय ही होता है; वहाँ अचित की प्रतीति तो केवल चिद्विलास अथवा भगवान की लीला की सिद्धि के लिये होती है। इसलिये स्थूलता में - या यों कहिये कि जड़ राज्य में रहने वाला मस्तिष्क जब भगवान की अप्राकृत लीलाओं के सम्बन्ध में विचार करने लगता है, तब वह अपनी पूर्व वासनाओं के अनुसार जड़ राज्य की धारणाओं, कल्पनाओं और क्रियाओं का ही आरोप उस दिव्य राज्य के विषय में भी करता है, इसलिये दिव्य-लीला के रहस्य को समझने में असमर्थ हो जाता है। यह रास वस्तुतः परम उज्ज्वल रस का एक दिव्य प्रकाश है। जड़ जगत की बात तो दूर रही, ज्ञान रूप या विज्ञान रूप जगत में भी यह प्रकट नहीं होता। अधिक क्या, साक्षात चिन्मय तत्त्व में भी इस परम दिव्य उज्ज्वल रस का लेशाभास नहीं देखा जाता। इस परम रस की स्फूर्ति तो परम भावमयी श्रीकृष्ण प्रेम स्वरूपा गोपीजनों के मधुर हृदय में ही होती है। इस रासलीला के यथार्थ स्वरूप और परम माधुर्य का आस्वाद उन्हीं को मिलता है, दूसरे लोग तो इस की कल्पना भी नहीं कर सकते। भगवान के समान ही गोपियाँ भी परम रसमयी और सच्चिदानन्दमयी ही हैं। साधना की दृष्टि से भी उन्होंने न केवल जड़ शरीर का ही त्याग कर दिया है, बल्कि सूक्ष्म शरीर से प्राप्त होने वाले स्वर्ग, कैवल्य से अनुभव होने वाले मोक्ष - और तो क्या, जड़ता की दृष्टि का ही त्याग कर दिया है। उनकी दृष्टि में केवल चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण हैं, उनके हृदय में श्रीकृष्ण को तृप्त करने वाला प्रेमामृत है। उनकी इस अलौकिक स्थिति में स्थूल शरीर, उसकी स्मृति और उसके सम्बन्ध से होने वाले अंग-संग की कल्पना किसी भी प्रकार नहीं की जा सकती। ऐसी कल्पना तो केवल देहात्मबुद्धि से जकड़े हुए जीवों की ही होती है। जिन्होंने गोपियों को पहचाना है, उन्होंने गोपियों की चरणधूलि का स्पर्श प्राप्त करके अपनी कृतकृत्यता चाही है। ब्रह्मा, शंकर, उद्धव और अर्जुन ने गोपियों की उपासना करके भगवान के चरणों में वैसे प्रेम का वरदान प्राप्त किया है या प्राप्त करने की अभिलाषा की है। उन गोपियों के दिव्य भाव को साधारण स्त्री-पुरुष के भाव-जैसा मानना गोपियों के प्रति, भगवान के प्रति और वास्तव में सत्य के प्रति महान् अन्याय एवं अपराध है। इस अपराध से बचने के लिये भगवान की दिव्य लीलाओं पर विचार करते समय उनकी अप्राकृत दिव्यता का स्मरण रखना परमावश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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