प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 30

प्रेम सत्संग सुधा माला

Prev.png

अब असल बात भी यही है। जिस क्षण एक नाम निकलता है, उसी क्षण भगवान् की सारी कृपा उस पर प्रकट होने के लिये विधान बन जाता है, परंतु वह कृपा जब तक प्रकट नहीं होती, तब तक इधर-उधर भटकना जारी रहता है। यदि किसी प्रकार सच्चे ह्रदय से अत्यन्त कातर प्रार्थना भगवान् या किसी सच्चे संत के प्रति हो जाय तो उसी क्षण इस बात पर उसे विश्वास हो जाता है और उसकी सारी अशान्ति मिट जाती है, परंतु यह प्रार्थना होती नहीं। हो तो, देखियेगा—सचमुच भगवान् इतने करुणामय हैं, उनका ह्रदय इतनी जल्दी पिघल जाता है कि जगत् में उसकी तुलना ही असम्भव है। जो चाहियेगा, जैसे चाहियेगा वही उसी प्रकार वे कर सकते हैं। यह नियम केवल केवल लौकिक बातों में ही नहीं, परमार्थ में भी यही नियम है। मान लें कि आप प्रार्थना करें कि ‘हे भगवन्! मुझे धन दो, मान दो।’ इस प्रार्थना को वे जैस जल्दी-से-जल्दी सुन सकते हैं; पूरी कर सकते हैं, वैसे ही उतनी ही जल्दी से ‘हे भगवन्! मेरा आपमें दृढ़ विश्वास हो जाय, आपमें मेरा प्रेम हो जाय’ इस प्रार्थना को भी सुन सकते हैं, पूरी कर सकते हैं। पर धन के माँगने के समय तो आपका ह्रदय ठीक-ठीक उस धन को भीतरी ह्रदय से माँगता है और विश्वास, प्रेम माँगते समय ऊपरी मन से नित्य-नियम पूरा करता है। पूजा पर बैठकर यह भी एक नियम है— कर लेते हैं; पर सचमुच यह व्याकुलता नहीं होती।......के लड़के की बीमारी को लेकर जैसी व्याकुलता थी, क्या उन लोगों में कोई भी उतना ही व्याकुल होकर यह चाहते हैं कि ‘हमारा मन भगवान् में लगे, भगवान् पर हमारा विश्वास हो।’ विश्वास की अपेक्षा भी ह्रदय की व्याकुलता की अधिकता आवश्यकता है; क्योंकि व्याकुलता विश्वास करा देगी। अब उस लड़के की बीमारी में जो आदमी जो उपाय बतलाता था, वही वे करते थे।

Next.png


टीका टिप्पणी और संदर्भ

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः