प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 29

प्रेम सत्संग सुधा माला

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जिस क्षण यह लालसा उत्पन्न हुई कि उसी क्षण भगवान् में भी लालसा उत्पन्न हो जायगी।अतः अन्तःकरण को निर्मल बनाने की चेष्टा ही कर्तव्य होता है,पर हमारा अन्तःकरण निर्मल हो, यह लालसा भी तीव्र नहीं है; क्योंकि उसके जो उपाय हैं, उनका आचरण जब हमसे नहीं होता, तब कैसे कहा जाय कि हम चाहते हैं कि हमारा अन्तःकरण निर्मल हो। फिर भी संत लोग तथा शास्त्र कहते हैं कि ‘घबराओ मत। यदि एक बार भी भगवान् की ओर झूठ-मूठी प्रवृत्ति भी तुम्हारी हो गयी है तो फिर तुम भले ही भगवान् को छोड़ दो, भगवान् तुम्हारा पिण्ड नहीं छोड़ेंगे।’

आपको विश्वास करा देना तो कठिन है, पर एक बिलकुल सच्ची बात आपको बतला रहा हूँ। बहुतही मर्म की बात है कि कैसे एक नाम लेने से ही मनुष्य तर जाता है। भगवान् में नाम-नामी, देह-देही का भेद नहीं है। जो इस बात को मान लेता है, उसको समझाने का तरीका तो दूसरा है; पर जो यह नहीं मानता, उसके लिये दूसरा तरीका है। अवश्य ही उसे शास्त्र एवं भगवद्वचनोंपर कुछ-न-कुछ विश्वास तो होना ही चाहिये। नहीं तो, फिर नास्तिक को समझना तो बड़ा ही कठिन है। भगवान् कहते हैं—

‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।’

अब इसके अनेक अर्थ होते हैं। एक यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि ‘जो मेरा नाम निरन्तर लेगा, उसका नाम मैं निरन्तर लूँगा।’ अच्छी बात है— नाथ! मुझसे निरन्तर नाम नहीं लिया जाता, मैंने जीवन भर में एक बार आपका नाम लिया है तो एक बार बदलें में आपने मेरा नाम लिया होगा। अब यदि यह प्रश्न होता है कि तुमने मन से नहीं लिया था। वाणी से यों ही निकल गया था तो ठीक है, आपने भी बदले में एक बार वाणी से ही मेरा नाम लिया होगा, पर नाथ! आपमें मेरी तरह वाणी और मन का भेद तो है नहीं। (भगवान् की वाणी और मन एक है) आप मेरे नाम लेने के बदले में केवल वाणी से भी मेरा नाम लेते हैं, तो मेरा निश्चय उद्धार हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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