प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 120

प्रेम सत्संग सुधा माला

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इस प्रकार दृढ़ निश्चय होते ही श्रीकृष्ण की सारी कृपा साधक के ऊपर बहने लगती है। लीला एक-से-एक सुन्दर तथा एक-से-एक आकर्षक- बढ़िया हैं, आकर्षक हैं, पर सभी में मन की आवश्यकता होगी ही। आप-जैसे मेरे पास आते हैं; अब यदि ऐसा नियम कर लें कि अपनी पूरी शक्ति लगाकर एक-डेढ़ घंटा जब तक इनके पास बैठूँगा, तब तक ये जैसे-जैसे लिखते जायँगे, उसका पूरा-पूरा चित्र बाँधने की चेष्टा करूँगा ही तो फिर चौबीस घंटों में डेढ़ घंटा आपका ध्यान हो गया। इसके बाद यदि घर पर नियम से, आज जिस लीला को सुनें, कल ठीक चार घंटे उसमें मन लगाना ही है, इस भावना से दृढ़तापूर्वक साधन करने, तब तो फिर पाँच-छः घंटे प्रतिदिन साधन होगा। तथा यदि विषय का संग नहीं हुआ, उससे बचे रचे, तब तो फिर उन्नति होनी ही चाहिये। पर बिना तत्परता के कुछ भी होना कठिन है।

विषयों का संग वह है, जो भगवान् से हटाये। जो भी वस्तु भगवान् के प्रति आकर्षण कम करे, वही विषय है।

84- श्रीकृष्ण तो कृपा के समुद्र हैं, उनके उन्मुख होना चाहिये; फिर उनमें पक्षपात थोड़े है कि इस पर कृपा करूँ, इस पर नहीं करूँ।

अब सोचिये- इस समय अँधेरा हो गया है; यहीं पर एक नहीं, एक साथ अनन्त लीलाएँ चल रही हैं। किसी के एक कण में मन को डुबाइये। सोचिये, श्रीराधाजी के हाथ की बनी हुई रसोई को नन्द बाबा के साथ श्रीकृष्ण आरोगने की तैयारी में खड़े हैं, मैया यशोदा जल्दी-जल्दी कभी भीतर आती हैं, कभी बाहर जाती हैं? कभी सोचती हैं- ओह! दूध में मिस्स्री डालना भूल गयी हूँ और चूल्हे के पास दौड़कर जाती हैं। श्रीकृष्ण अन्यमनस्क-से होकर अपने महल में बाहर के बरामदे में खड़े ऐसा भाव प्रकट कर रहे हैं मानो उनकी दृष्टि अन्धकार को चीरकर किसी को देखना चाहती हो। इधर नन्द बाबा के दरबार की तैयारी होने जा रही है। कोई बाजा लेकर, कोई पोशाक की पेटी लेकर दरबार की ओर जा रहा है। नन्द बाबा की पगड़ी हिल जाती है। श्रीकृष्ण का हाथ नन्द बाबा पकड़े हैं, अब वे चल रहे हैं; सीढ़ियों से चढ़ रहे हैं। अब एक-एक वस्तु को यदि मन देखने लगे तो इतनी-सी बात में दो घंटे बीत जायँगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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