देवदूत द्वारा युधिष्ठिर को नरक का दर्शन कराना

महाभारत स्वर्गारोहण पर्व के अंतर्गत दूसरे अध्याय में वैशम्पायन जी ने युधिष्ठिर द्वारा अपने भाईयों के विषय में पूछने पर देवदूत द्वारा युधिष्ठिर को नरक का दर्शन कराने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

देवदूत द्वारा युधिष्ठिर को नरक का दर्शन कराना

युधिष्ठिर ने पूछा- 'देवताओं! मैं यहाँ अमित तेजस्वी राधानन्दन कर्ण को क्‍यों नहीं देख रहा हूँ? दोनों भाई महामनस्वी युधामन्यु और उत्तमौजा कहाँ हैं? वे भी नहीं दिखायी देते। जिन महारथियों ने समराग्नि में अपने शरीरों की आहुति दे दी, जो राजा और राजकुमार रणभूमि में मेरे लिये मारे गये वे सिंह के समान पराक्रमी समस्त महारथी वीर कहाँ हैं? क्‍या उन पुरुष प्रवर वीरों ने भी इस स्वर्ग लोक पर विजय पायी है? देवताओं! यदि वे सम्पूर्ण महारथी इन लोकों में आये हैं तो आप समझ लें कि मैं उन महात्माओं के साथ रहूँगा। परंतु यदि उन नरेशों ने य‍ह शुभ एवं अक्षयलोक नहीं प्राप्‍त किया है तो मैं उन जाति-भाइयों के बिना यहाँ नहीं रहूँगा। युद्ध के बाद जब मैं अपने मृत सम्बन्धियों को जलाञ्जलि दे रहा था उस समय मेरी माता कुन्ती ने कहा था- ‘बेटा! कर्ण को भी जलाञ्जलि देना।’ माता की यह बात सुनकर मुझे मालूम हुआ कि महात्मा कर्ण मेरे ही भाई थे। तब से मुझे उनके लिये बड़ा दु:ख होता है। देवताओं! यह सोचकर तो मैं और भी पश्चात्ताप करता रहता हूँ कि ‘महामना कर्ण के दोनों चरणों को माता कुन्ती के चरणों के समान देखकर भी मैं क्‍यों नहीं शत्रुदलमर्दन कर्ण का अनुगामी हो गया? यदि कर्ण हमारे साथ होते तो हमें इन्द्र भी युद्ध में परास्त नहीं कर सकते। ये सूर्यनन्दन कर्ण जहाँ कहीं भी हो मैं उनका दर्शन करना चाहता हूँ; जिन्हें न जानने के कारण मैंने अर्जुन द्वारा उनका वध करवा दिया। मैं अपने प्राणों से भी प्रियतम भयंकर पराक्रमी भाई भीमसेन को, इन्द्रतुल्‍य तेजस्वी अर्जुन को, यमराज के समान अजेय नकुल-सहदेव को तथा धर्मपरायण देवी द्रौपदी को भी देखना चाहता हूँ। मैं आप लोगों से यह सच्‍ची बात कहता हूँ। सुरश्रेष्ठगण! अपने भाइयों से अलग रहकर इस स्वर्ग से भी मुझे क्‍या लेना है? जहाँ मेरे भाई हैं वहीं मेरा स्वर्ग है। उनके बिना मैं इस लोक को स्वर्ग नहीं मानता'।

देवता बोले- 'वत्स! यदि उन लोगों में तुम्हारी श्रद्धा है तो चलो, विलम्ब न करो। हम लोग देवराज की आज्ञा से सर्वथा तुम्हारा प्रिय करना चाहते हैं'। वैशम्पायनजी कहते हैं- शत्रुओं को संताप देने वाले जनमेजय! युधिष्ठिर से ऐसा कहकर देवताओं ने देवदूत को आज्ञा दी- ‘तुम युधिष्ठिर को इनके सुहृदों का दर्शन कराओ'। नृपश्रेष्ठ! तब कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर और देवदूत दोनों साथ-साथ उस स्थान की ओर चले जहाँ वे पुरुषप्रवर भीमसेन आदि थे। आगे-आगे देवदूत जा रहा था और पीछे-पीछे राजा युधिष्ठिर। दोनों ऐसे दुर्गम मार्ग पर जा पहुँचे जो बहुत ही अशुभ था। पापाचारी मनुष्य ही यातना भोगने के लिये उस पर आते-जाते थे। वहाँ घोर अन्धकार छा रहा था। केश, सेवार और घास इन्हीं से वह मार्ग भरा हुआ था। वह पापियों के ही योग्य था। वहाँ दुर्गन्ध फैल रही थी। मांस और रक्‍त की कीच जमी हुई थी। उस रास्ते पर डाँस, मच्‍छर, मक्‍खी, उत्पाती जीवजन्तु और भालू आदि फैले हुए थे। इधर-उधर सब ओर सड़े मुर्दे पड़े हुए थे। हड्डियाँ और केश चारों ओर फैले हुए थे। कृमि और कीटों से वह मार्ग भरा हआ था। उसे चारों ओर से जलती आग ने घेर रखा था। लोहे की-सी चोंच वाले कौए और गीध आदि पक्षी मँडरा रहे थे। सूई के समान चुभते हुए मुखों वाले और विन्ध्‍यपर्वत के समान विशालकाय प्रेत वहाँ सब ओर घूम रहे थे।[1]

वहाँ यत्र-तत्र बहुत-से मुर्दे बिखरे पड़े थे, उनमें से किसी के शरीर से रुधिर और मेद बहते थे, किसी के बाहु, ऊरू, पेट और हाथ-पैर कट गये थे। धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर मन-ही-मन बहुत चिन्ता करते हुए उसी मार्ग के बीच से होकर निकले जहाँ सड़े मुर्दों की बदबू फैल रही थी और अमंगलकारी वीभत्स दृश्‍य दिखायी देता था। वह भयंकर मार्ग रोंगटे खड़े कर देने वाला था। आगे जाकर उन्होंने देखा, खौलते हुए पानी से भरी हुई एक नदी बह रही है, जिसके पार जाना बहुत ही कठिन है। दूसरी ओर तीखी तलवारों या छूरों के-से पत्तों से परिपूर्ण तेज धार वाला असिपत्र नामक वन है। कहीं गरम-गरम बालू बिछी है तो कहीं तपाये हुए लोहे की बड़ी-बड़ी चट्टानें रखी गयी हैं। चारों ओर लोहे के कलशों में तेल खौलाया जा रहा है जहाँ-तहाँ पैने काँटों से भरे हुए सेमल के वृक्ष हैं, जिनको हाथों से छूना भी कठिन है। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने यह भी देखा कि वहाँ पापाचारी जीवों को बड़ी कठोर यातनाएँ दी जा रही हैं। वहाँ की दुर्गन्ध का अनुभव करके उन्होंने देवदूत से पूछा- ‘भैया! ऐसे रास्‍ते पर अभी हम लोगों को कितनी दूर और चलना है? तथा मेरे वे भाई कहाँ हैं? यह तुम्हें मुझे बता देना चाहिये। देवताओं का यह कौन-सा देश है, इस बात को मैं जानना चाहता हूँ’। धर्मराज की यह बात सुनकर देवदूत लौट पड़ा ओर बोला- ‘बस, यहीं तक आपको आना था।’ महाराज! देवताओं ने मुझसे कहा है कि जब युधिष्ठिर थक जायँ तब उन्हें वापस लौटा लाना; अत: अब मुझे आपको लौटा ले चलना है। यदि आप थक गये हों तो मेरे साथ आइये'।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-20
  2. महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व अध्याय 2 श्लोक 21-37

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