इंद्र और धर्म का युधिष्ठिर को सान्त्वना देना

महाभारत स्वर्गारोहण पर्व के अंतर्गत तीसरे अध्याय में वैशम्पायन जी ने इंद्र और धर्म द्वारा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

इंद्र का युधिष्ठिर को सान्त्वना देना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कुन्तीकुमार धर्मराज युधिष्ठिर को उस स्‍थान पर खड़े हुए अभी दो ही घड़ी बीतने पायी थी कि इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता वहाँ आ पहुँचे। साक्षात धर्म भी शरीर धारण करके राजा से मिलने के लिये उस स्‍थान पर आये जहाँ वे कुरुराज युधिष्ठिर विद्यमान थे। राजन! जिनके कुल और कर्म पवित्र हैं, उन तेजस्‍वी शरीर वाले देवताओं के आते ही वहाँ का सारा अन्धकार दूर हो गया। वहाँ पापकर्मी पुरुषों को जो यातनाएँ दी जाती थीं वे सहसा अदृश्‍य हो गयीं। न वैतरणी नदी रह गयी, न कूटशाल्‍मलि वृक्ष। लोहे के कुम्भ और लोहमयी भयंकर तप्‍त शिलाएँ भी नहीं दिखायी देती थीं। कुरुकुलनन्दन राजा युधिष्ठिर ने वहाँ चारों ओर जो विकृत शरीर देखे थे वे सभी अदृश्‍य हो गये। तदनन्तर वहाँ पावन सुगन्ध लेकर बहने वाली पवित्र सुख‍दायिनी वायु चलने लगी। भारत! देवताओं के समीप बहती हुई वह वायु अत्‍यन्त शीतल प्रतीत होती थी। इन्द्र के साथ मरूद्गण, वसुगण, दोनों अश्विनीकुमार, साध्यगण, रुद्रगण, आदित्यगण, अन्यान्य देवतालोकवासी सिद्ध और महर्षि सभी उस स्‍थान पर आये जहाँ महातेजस्‍वी धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर खड़े थे। तदनन्तर उत्तम शोभा से सम्पन्न देवराज इन्द्र ने युधिष्ठिर को सान्त्‍वना देते हुए इस प्रकार कहा- 'महाबाहु युधिष्ठिर! तुम्हें अक्षयलोक प्राप्‍त हुए हैं। पुरुषसिंह! प्रभो! अब तक जो हुआ सो हुआ। अब अधिक कष्ट उठाने की आवश्‍यकता नहीं है। आओ हमारे साथ चलो।

महाबाहो! तुम्हें बहुत बड़ी सिद्धि मिली है; साथ ही अक्षयलोकों की भी प्राप्ति हुई है। तात! तुम्हें जो नरक देखना पड़ा है इसके लिये क्रोध न करना। मेरी यह बात सुनो। समस्‍त राजाओं को निश्चय ही नरक देखना पड़ता है। पुरुषप्रवर! मनुष्य के जीवन में शुभ और अशुभ कर्मों की दो राशियाँ सञ्चित होती हैं। जो पहले ही शुभ कर्म भोग लेता है उसे पीछे नरक में ही जाना पड़ता है। परंतु जो पहले नरक भोग लेता है वह पीछे स्‍वर्ग में जाता है। जिसके पास पापकर्मों का संग्रह अधिक है वह पहले ही स्‍वर्ग भोग लेता है। नरेश्वर! मैंने तुम्हारे कल्‍याण की इच्‍छा से तुम्हें पहले ही इस प्रकार नरक का दर्शन कराने के लिये यहाँ भेज दिया है। राजन! तुमने गुरुपुत्र अश्वत्थामा के विषय में छल से काम लेकर द्रोणाचार्य को उनके पुत्र की मृत्‍यु का विश्वास दिलाया था, इसलिये तुम्हें भी छल से ही नरक दिखलाया गया है। जैसे तुम यहाँ लाये गये थे उसी प्रकार भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा द्रुपदकुमारी कृष्णा- ये सभी छल से नरक के निकट लाये गये। पुरुषसिंह! आओ, वे सभी पाप से मुक्‍त हो गये हैं। भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे पक्ष के जो-जो राजा युद्ध में मारे गये हैं वे सभी स्‍वर्गलोक में आ पहुँचे हैं। चलो, उनका दर्शन करो। तुम जिनके लिये सदा संतप्‍त रहते हो वे सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महाधनुर्धर कर्ण भी परमसिद्धि को प्राप्‍त हुए हैं। प्रभो! नरश्रेष्ठ! महाबाहो! तुम पुरुषसिंह सूर्यकुमार कर्ण का दर्शन करो। वे अपने स्‍थान में स्थित हैं। तुम उनके लिये शोक त्‍याग दो।[1]

अपने दूसरे भाइयों को तथा पाण्डव पक्ष के अन्यान्य राजाओं को देखो। वे सब अपने-अपने योग्‍य स्‍थान को प्राप्‍त हुए हैं। उन सबकी सद्गति के विषय में अब तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये। कुरुनन्दन! पहले कष्ट का अनुभव करके अब से तुम मेरे साथ रहकर रोग-शोक से रहित हो स्‍वछन्द विहार करो। तात! महाबाहु! पृथ्‍वीनाथ! अपने किये हुए पुण्‍यकर्मों को, तपस्‍या से जीते हुए लोकों का और दानों का फल भोगो। आज से देव, गन्धर्व तथा कल्‍याणस्‍वरूपा दिव्य अप्‍सराएँ स्‍वच्‍छ वस्‍त्र और आभूषणों से विभूषित हो स्‍वर्गलोक में तुम्हारी सेवा करें। महाबाहो! राजसूय यज्ञ द्वारा जीते हुए तथा अश्वमेध यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्‍त हुए पुण्‍य लोकों को प्राप्‍त करो और अपने तप के महान फल को भोगो। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! तुम्हें प्राप्‍त हुए सम्पूर्ण लोक राजा हरिश्चंद्र के लोकों की भाँति सब राजाओं के लोकों से ऊपर है; जिनमें तुम विचरण करोगे। जहाँ राजर्षि मान्धाता, राजा भगीरथ और दुष्यन्तकुमार भरत गये हैं, उन्हीं लोकों में तुम भी विहार करोगे। पार्थ! ये तीनों लोकों को पवित्र करने वाली पुण्‍यसलिला देवनदी आकाशगंगा हैं। राजेन्द्र! इनके जल में गोता लगाकर तुम दिव्य लोकों में जा सकोगे। मन्दाकिनी के इस पवित्र जल में स्‍नान कर लेने पर तुम्हारा मानव-स्‍वभाव दूर हो जायेगा। तुम शोक, संताप और वैरभाव से छुटकारा पा जाओगे’।[2]

धर्म का युधिष्ठिर को सान्त्वना देना

देवराज इन्द्र जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय शरीर धारण करके आये हुए साक्षात धर्म ने अपने पुत्र कौरवराज युधिष्ठिर से कहा- ‘महाप्राज्ञ नरेश! मेरे पुत्र! तुम्हारे धर्मविषयक अनुराग, सत्‍यभाषण, क्षमा और इन्द्रियसंयम आदि गुणों से मैं बहुत प्रसनन हूँ। राजन! यह मैंने तीसरी बार तुम्हारी परीक्षा ली थी। पार्थ! किसी भी युक्ति से कोई तुम्हें अपने स्‍वभाव से विचलित नहीं कर सकता। द्वैतवन में अरणिकाष्ठ का अपहरण करने के पश्चात् जब यज्ञ के रूप में मैंने तुमसे कई प्रश्न किये थे वह मेरे द्वारा तुम्हारी पहली परीक्षा थी। उसमें तुम भलीभाँति उत्तीर्ण हो गये। भारत! फिर द्रौपदी सहित तुम्हारे सभी भाइयों की मृत्‍यु हो जाने पर कुत्ते का रूप धारण करके मैंने दूसरी बार तुम्हारी परीक्षा ली थी। उसमें भी तुम सफल हुए। अ‍ब यह तुम्हारी परीक्षा का तीसरा अवसर था; किंतु इस बार भी तुम अपने सुख की परवा न करके भाइयों के हित के लिये नरक में रहना चाहते थे, अत: महाभाग! तुम इस तरह से शुद्ध प्रमाणित हुए। तुममें पाप का नाम भी नहीं है; अत: सुखी होओ। पार्थ! प्रजानाथ! तुम्हारे भाई नरक में रहने के योग्‍य नहीं हैं। तुमने जो उन्हें नरक भोगते देखा है वह देवराज इन्द्र द्वारा प्रकट की हुई माया थी। तात! समस्‍त राजाओं को नरक का दर्शन अवश्‍य करना पड़ता है; इसलिये तुमने दो घड़ी तक यह महान दु:ख प्राप्‍त किया है। नरेश्वर! सव्यसाची अर्जुन, भीमसेन, पुरुषप्रवर नकुल-सहदेव अथवा सत्‍यवादी शूरवीर कर्ण- इनमें से कोई भी चिरकाल तक नरक में रहने के योग्‍य नहीं है। भरतश्रेष्ठ! राजकुमारी कृष्णा भी किसी तरह नरक में जाने योग्‍य नहीं है। आओ, त्रिभुवनगामिनी गंगा जी का दर्शन करो’।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-20
  2. 2.0 2.1 महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व अध्याय 3 श्लोक 21-44

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