देख पा रही नहीं राधिका किंतु श्यामको अपने पास।
दर्शन-हेतु भाग चलनेको राधा करने लगीं प्रयास॥
किंतु नहीं उठ सकीं, कर उठीं हो व्याकुल अति करुण पुकार।
’हा प्राणेश ! प्राणवल्लभ हे ! हा हृदयेश्वर ! प्राणाधार !॥
कहाँ गये तुम मुझे छोडक़र एकाकिनी सहज असहाय ?।
कैसे कहाँ मिलूँ अब तो ये प्राण नहीं रह सकते हाय !॥
हाँ, हाँ, मैं अब समझी, तुमको मिलता इससे सुख-आराम।
तो मैं मरती रहूँ, न मिलना मुझसे मेरे प्राणाराम !॥
तुहें चाहती मरकर भी मैं सुखी देखना नित्य अनन्त।
पूरी करो साध मेरी, यह मेरे सर्वेश्वर ! श्रीमन्त !’॥
यों कहकर हो गयीं राधिका मूर्च्छित बाह्य-चेतनाहीन।
छाया अति विषाद मुख-विधुपर, दशा हो रही थी अति दीन॥
धोये नेत्र सुशीतल जलसे, प्रियने छिडक़े मुख जलबिन्दु।
व्याकुल हुए देख प्यारीका सुखमय मलिन सुमुख-शरदिन्दु॥
बोले-’प्रिये ! उठो तुम सत्वर, करो चेत, मत रहो उदास।
प्राणाधार तुहीं हो मेरी, अतः निरन्तर रहता पास॥