गया नहीं मैं कहीं प्रियतमे ! जा न सकूँगा तुमको त्याग।
नहीं तुहारे सिवा कहीं भी है मेरा किंचित्-सा राग॥
तुहें सुखी करनेको ही बस मैं लेता भूपर अवतार।
प्रेम-रसास्वादन मैं करता दिव्य तुहारा अकथ अपार’॥
कहते-कहते श्याम हृदय-सागरमें उठीं अनेक तरंग।
बहने लगी अश्रु-सरिता, सब शिथिल हो गये चिन्मय अङ्ग॥
जगीं राधिका, मिटा ’प्रेमवैचिय’, हुआ सुस्मृतिका लाभ।
देखा अश्रु बहाते प्रियतम, म्लान नेत्र जो नित अमिताभ॥
आतुर आर्त रो पड़ी, बोलीं-’प्राणेश्वर ! मैं कैसी नीच !।
मेरे कारण नित प्रसन्न-मुख, आज विषण्ण जगतके बीच॥
कैसे दुःख मिटाऊँ प्यारे ! कैसे सुख पहुँचाऊँ आज !
कैसे मुखपर मुक्त हास्य मैं देखूँ, हे मेरे सिरताज !
सुनकर बोले मेरे प्रियतम, ’प्रिये ! एक साधन विख्यात।
मुझे हँसाने, सुखी बनानेका अमोघ, यह निश्चित बात॥
सुखी बनो तुम, रहो प्रफुल्लित, रोम-रोम भर दिव्यानन्द।
मृदु मन्दस्मित रहे खेलता अधरोष्ठोंपर नित्य अमन्द॥
प्रिये ! तुहारा सुख मेरा सुख, प्यार तुहारा मेरा प्यार।
सुखी करो, हो सुखी स्वयं तुम-यही एक बस साधन-सार’॥
सोरठा
प्रिय-मुखकी सुन बात, राधा अति हर्षित हुर्ईं।
पुलक हो उठे गात, मिले परस्पर हर्षयुत॥