गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 20

गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार

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बुद्ध्या विशुद्ध्या युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शबदादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।।
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः ।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।
भक्त्या मामभिजानाति यावन्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।[1]

अर्थात् ‘जब मनुष्य विशुद्ध बुद्धि से युक्त, एकान्तसेवी, मिताहारी, मन-वाणी-शरीर को जीता हुआ, सदा वैराग्य को धारण करने वाला, निरन्तर ध्यानपरायण, दृढ़ धारणा से अन्तःकरण को वश में करके, शब्द- स्पर्शादि विषय को त्यागकर, राग-द्वेश को नष्ट करके, अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को छोड़कर ममतारहित, शान्त हो जाता है, तभी वह ब्रह्मप्राप्ति के योग्य होता है। फिर ब्रह्मभूत होकर सदा प्रसन्नचित्त रहने वाला वह न किसी वस्तु के लिये शोक करता है और न किसी वस्तु की आकांक्षा ही करता है और सब प्राणियों में समभाव से भगवान् को देखता है तब उसे मेरी पराभक्ति प्राप्त होती है। उस पराभक्ति के द्वारा मेरे तत्वों को भलीभाँति जानता है कि मैं किस प्रभाववाला हूँ। इसी पराभक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर भक्त तदनन्नतर ही मुझमें मिल जाता है।‘

ध्यानपूर्वक देखा जाय तो गोपियों में उपर्युक्त सभी बातें पूर्णरूप से थीं। विशुद्ध बुद्धि का इससे बढ़़कर क्या सबूत हो सकता है कि वह सदा भगवान् श्रीकृष्ण में ही लगी रहे। श्रीकृष्ण- मिलने के लिये एकान्त- सेवन, शरीर से ही नहीं मन से भी एकान्त रहना, खान-पान भूल जाना, मन-वाणी-शरीर को विषयों से खींचकर एकमात्र प्रियतम श्रीकृष्ण में लगाये रखना, घर-परिवार आदि किसी भी भोग-पदार्थ में राग न रखना, निरन्तर प्रियतम श्रीकृष्ण के ध्यान में संलग्न रहना, मन में श्रीकृष्ण की दृण धारणा से अन्तः करण को श्रीकृष्णमय बनाये रखना श्रीकृष्ण विषयक पदार्थो के सिवा, अन्य सभी शब्द-स्पर्शादि विषयो को त्याग देना, जगत् की दृष्टि से किसी भी पदार्थ में राग-द्वेष रखना, अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परग्रिह सबका श्रीकृष्ण में उत्सर्ग कर देना, घर-द्वार ही नही स्वर्ग और मोक्ष में भी ममत्व न रखना, चित्त को सदा श्रीकृष्ण के स्वरूप से समाहित रखकर जगत् के विषयों से शान्त रखना और श्रीकृष्ण को ब्रह्मरूप से पहचानकर, उनसे मिलने के लिये व्याकुल होना गोपियों के चरित्र में पद-पद पर प्राप्त होता है। इसके सिवा उनका नित्यानन्दमयी होकर सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति-अप्राप्ति में हर्ष-शोक से रहित होना और सर्वत्र श्रीकृष्ण को सब प्राणियों में देखना भी प्रसिद्ध ही है। साधकों को दीर्घकाल के महान् साधन से प्राप्त होने वाली ये बातें गोपियों में स्वाभाविक थीं, इसीसे भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना रहस्य खोलकर बतला दिया और अपने स्वरूप का साक्षात् दर्शन कराकर उनके साथ दिव्य क्रीड़ा करके उन्हें श्रीकृष्णरूप बना लिया। ज्ञानियों से विशेषता यह रही कि इसमें सारी बातें केवल विचार के आधार न रहकर प्रत्यक्ष इन्द्रियगम्य हो गयीं।

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  1. (गीता 17।51।55)

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